Friday, 19 July 2024

648: ग़ज़ल जब भी ग़मों से थक गया हूं

जब भी ग़मों से थक गया हूं,मुझे ये अहसास हुआ।
चल के सीधे ही उसकी चौखट जाने को पहुंच गया।।
मकसद था किवाड़ में लगी सांकल खटकाने का।
दूर का था सफर, दरअसल दिल तक जाना रहा।।
नए देश में आ तो गया हूं भुलाने को तुझको यारब।
अंदाज किसे था न मिलेगा रक़ीब भी यहां अपना।।
सच में चकाचौंध भरी जिंदगी का लुत्फ तो अलहदा है।
मगर बिछुड़ उससे कहां पलभर दिली सुकून है मिलता।।
"उस्ताद" है यकीं मान जायेगा हमसे हमारा रूठा नसीब।
यूं मज़ा भी कहो कहां बगैर थोड़े बहुत पेचोखम के बिना।।

नलिन उस्ताद 

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