Saturday, 1 July 2023

546: ग़ज़ल - बरसात बादल कुदरत

उमड़ते-घुमड़ते बादल,जब बरसते हैं।
नया एक जोश,जज्बातों में भरते हैं।।

उम्र की सीढियां कितनी चढ़ी,भला कौन गिने।
छत में जाकर,हम तो बस मदमस्त नहाते हैं।।

कुदरत की कितनी अनमोल शै है,ये बरसात भी।
मोर इठला के नाचते,पपीहे दादुर देखो कूकते हैं।।

मुरझाए हुए पौधों की देह तो,जरा देखो तुम।
कितने चिकने,हरे-भरे होकर,खिलखिलाते हैं।।

"उस्ताद" तुम भी तो सीखो,कुछ बादलों से।
कैसे बगैर भेदभाव,हर किसी को भिगो देते हैं।।

नलिनतारकेश

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