Monday, 9 August 2021

375- गजल- पीतेहैं उस्ताद

बदल रहे हैं वो मिजाज अपने आहिस्ता-आहिस्ता।
कतरा के चलते हैं अब हमसे आहिस्ता-आहिस्ता।।

खिले गुल से मिलते थे जो कभी हर मोड़ हमको।
लबे पंखुरी समेटते दिख रहे आहिस्ता-आहिस्ता।।

जमाने की नई हवा लगती दिख रही है अब तो सबको।
बुजुर्गों से भी बदजुबानी करने लगे आहिस्ता-आहिस्ता।।

सावन में बादलों के मिजाज अलहदा अपना रंग दिखाते।
कहीं मूसलाधार तो कहीं बरसते बड़ेआहिस्ता-आहिस्ता।।

जाम पर जाम चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती कभी भी।
निगाहों से "उस्ताद" सांवली पीते आहिस्ता-आहिस्ता।। 

@नलिनतारकेश 

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