Monday, 8 October 2018

जीव बना नारायण

दस अश्व जुता रथ,जीव का निरंतर अग्रसर हो रहा।
कभी तीव्र गति,तो ये कभी मदमस्त,हौले हो रहा।।

"विवेक" को सौंपी थी वल्गा,सन्मार्ग आरूढ होने के लिए।
चतुर "मन" ने पथ पलायन किया,पर क्षुद्र स्वार्थ के लिए।।

कान में विवेक के,न जाने मन ने घुट्टी पिलाई कौन सी ।
संज्ञाशून्य सा जाने नहीं,चल रहा है वो राह कौन सी।।

मन हुआ अब प्रमुदित बड़ा,ये सोच स्वतंत्रता विलास की।
बेखौफ अलमस्त बढ़ा,पाकर वो आश्वस्ति सदा विलास की।।

समय के साथ किंतु देखो,इंद्री अश्व शिथिल हो गए। 
मन तो था वैसा ही चंचल,पर वह मरने से हो गए ।।

विवेक को भी अब धीरे ही सही,होश कुछ आ रहा था।
चिड़िया चुग गई खेत,वो भी जान ऐसा पछता रहा था।।

उस के स्वर में दैन्यता उपजी,और वो सात्विक रूदन करने लगा।
कर्म करूं क्या जो अब प्रमाद सुधरे मेरा, वो विचार करने लगा।।

उसके सरल मन की अभ्यथॆना ने, सौभाग्य से राह एक नई खोल दी।
कृष्ण ने खोली थी जैसी पार्थ की,दिव्य आंख उसकी भी खोल दी।

अब तो वो मगन हो,परमात्म-प्रेम में झूमने लगा।
बाल-मन भी पा नया झुनझुना,प्रमुदित झूमने लगा।।

विवेक भी समय के साथ निरंतर,शुद्ध परिष्कृत बढ़ता चला।
मन से अब अपेक्षा ना थी उसे कुछ,सो वो बढ़ता चला।।

भाव-कुभाव,दृष्टि बस पैनी रखते हुए, उसने मन को छुट्टा छोड़ दिया।
टोकाटाकी के बगैर मन भी,अंततः थक हार,जीव को सताना छोड़ दिया।।

देर-सबेर विलंब से ही सही चलो,जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया।
आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर "जीव" स्वयं निर्मल"नारायण"हो गया।।

@नलिन #तारकेश

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