Tuesday, 16 October 2018

गजल-84 शहर पहचानता नहीं

अब तो मैं सच में अपना ही शहर पहचानता नहीं।
काट रहा यहां कौन अमन का सर पहचानता नहीं।।

जाने कौन है अजनबी कौन बाशिंदा पुराना। आदमी लगते सब एक हैं मगर पहचानता नहीं।।

अजब-गजब ईंट-गारे की बुलंद इमारतें यहां।
रहते हैं आदमी या जानवर पहचानता नहीं।।

जाने किस-किस को सजदा किया हसरतों की खातिर।
दरअसल रहमत पाक-परवर पहचानता नहीं।।

तोहमत लगा सरेआम जलील करना आसान है।
काम के बाद यहां कोई अक्सर पहचानता नहीं।।

सबके आगे दिल खोल तफसील से बैठ जाता है।
नादान है वो तो जमाने का असर जानता नहीं।।

रहता है वो सब के साथ  आसां ओ मुश्किल सभी दौर में।
दिक्कत बस एक यही,"उस्ताद"उसकी नजर पहचानता नहीं।।

@नलिन #उस्ताद

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