Wednesday, 31 October 2018

गजल-83 मरमरी हाथों को

पेंचोखम जुल्फ के हजार सुलझाऊं भला कैसे।
नजरें बता उसके नूर पर टिकाऊं भला कैसे।।

सजी है मेरे सरकार के मेहंदी चटक लाल। मरमरी* हाथों को उन चूम पाऊं भला कैसे।।
*कोमल

जाने कितनी मुद्दत बाद नसीब खुले हैं ।
गवां मौका ये काम चलाऊं भला कैसे।।

तसव्वुर* हजार जो संजोए थे इंद्रधनुषी।
हर रंग छाए कायनात बताऊं भला कैसे।।
*कल्पना

सफर में चलते गर्म रेत पर बस छालों के निशान थे।
पहना सकूं सिसकते कदमों को खड़ाऊं भला कैसे।।

पत्ता-पत्ता,बूटा-बूटा अटा पड़ा है उसकी रहमत से।
तौफीक*ये परवरदिगार की"उस्ताद"कमाऊं भला कैसे।।*ईशकृपा

@नलिन #उस्ताद

1 comment:

  1. आज़म खान एक मूर्ख है। मूर्ति केवल 30 फीट लंबा और 40 फीट ऊंची होनी चाहिए - और 2 करोड़ से भी कम लागत होनी चाहिए।
    यदि लागत अधिक है, तो इसे पूर्वांचल और विदर्भ के 500 किसानों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए।

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