Monday 8 October 2018

बमुश्किल मिलते हैं

बमुश्किल मिलते हैं एक ही घर में, नए दौर में।
गुजारा जाने कैसे करेंगे,नए दौर में।।

बेजान चीजों की बड़ी कद्र है,रखते बड़े शऊर से।
लेते नहीं मां-बाप का पुरसाहाल बच्चे नए दौर में।।

बीती बात हुई औरत को कहना अबला,बात-बेबात में।
बढ़-चढ़ सीख रही,मर्दाना हथकंडे सभी नए दौर में।।

बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ है इश्तहार हर गली में।
बगैरत,जालिम अस्मत पर लूटते सरेआम नए दौर में।।

ठगी की दुकानें खोल बैठे हैं आज सभी अपनी-अपनी।
अपने,पराए निरा पागल वो बनाते दिखे नए दौर में।।

हवा,पानी सबको ही मैला-कुचला कर दिया बहुत।
ढोते हम सभी जनाजा ही दिखेंगे नए दौर में।।

हकूक के हमारे जो लेता है सुप्रीम फैसले। मोतियाबिंद बढ़ गया है इसका लगे नई दौर में।।

"उस्ताद"कदम दर कदम बदफेली*ही बढ़ रही हर तरफ।*अधमॆ
न जाने और कितना रसातल जायेंगे नए दौर में।।

BLOG:http:
astrokavitarkeshblogspot.com

No comments:

Post a Comment