Wednesday, 31 October 2018

गजल-83 मरमरी हाथों को

पेंचोखम जुल्फ के हजार सुलझाऊं भला कैसे।
नजरें बता उसके नूर पर टिकाऊं भला कैसे।।

सजी है मेरे सरकार के मेहंदी चटक लाल। मरमरी* हाथों को उन चूम पाऊं भला कैसे।।
*कोमल

जाने कितनी मुद्दत बाद नसीब खुले हैं ।
गवां मौका ये काम चलाऊं भला कैसे।।

तसव्वुर* हजार जो संजोए थे इंद्रधनुषी।
हर रंग छाए कायनात बताऊं भला कैसे।।
*कल्पना

सफर में चलते गर्म रेत पर बस छालों के निशान थे।
पहना सकूं सिसकते कदमों को खड़ाऊं भला कैसे।।

पत्ता-पत्ता,बूटा-बूटा अटा पड़ा है उसकी रहमत से।
तौफीक*ये परवरदिगार की"उस्ताद"कमाऊं भला कैसे।।*ईशकृपा

@नलिन #उस्ताद

Tuesday, 30 October 2018

जाने कितने

जाने कितने अनगिनत तरीकों से,हमें मनाता है वो उम्र भर।
ठोक-पीट,बहला-फुसला, तो कभी सहला- पुचकार कर।

हम भी मगर कम ढीठ तो नहीं,चलते हैं अपने ही पथ पर।
वो भी ऐसे में क्या करे,यूं छोड़ता नहीं है साथ उम्र भर।।

दरअसल हमें माया-मोह से है बहुत गहरा लगाव पोर-पोर।
हर कदम ठोकर खाते हैं पर बढ़ते जाते सतत हम उसी पथ पर।।

हां कभी जब नाचते-नाचते फंस जाते हैं मंझधार की वर्तुल तरंगों पर।
तब एक बार मन-प्राण से,आस्था व्यक्त करते साकार-निराकार पर।।

बचा लो हे नाथ इस बार ना करेंगे दुष्कर्म कहते पुकार कर।
वो दयासागर,करुणानिधान पिघल जाता हमारी एक गुहार पर।।

पर फिर वही सिलसिला,चलता रहता अबाध गति से जीव का निरंतर।
हम रोते-कलपते,फंसे-झूलते प्रतिदिन इसी मनःस्थिति में रहते तत्पर।।

हम नहीं लाचार,तुच्छ,जाने क्यों नहीं विश्वास करते अपने आप पर।
हम ही तो हैं परम सत्ता के अग्रदूत इस पावन पवित्र भूमि पर।।

@नलिन #तारकेश

नायाब मोती

आंख से अपनी छलकते हैं तो छलकने दो तुम ये नायाब मोती।
किस्मत के हो धनी तुम,तो मस्त बेपरवाह लुटाओ सदा मोती।।

उससे इश्क किया है तो रेगिस्तान का सफर है लाजिम जिंदगी।
हर कदम दर कदम उठा चलना भी इम्तिहान है ये जिंदगी।।

दिल में हो प्यार,होठों पर रहे हंसी-सुकून का तृप्त जाम।
माहौल कैसा भी हो आस-पास, खाली ना रहे तेरा जाम।।

आकाश हो या पाताल कहीं ना कहीं तो तुझे मिलेगा जीवन का आधार।
साकार या निराकार वो तो है सर्वत्र व्याप्त जो बना जगत का आधार।।

देह तो है मात्र स्थूल एक लिहाफ रखता है जो हमको बांध बार बार।
म्यान के भीतर रखी तलवार निकाल परंतु देखनी तो होगी एक बार।।

सप्तलोक के चक्र द्वार भेद कर पाना होगा हमें नव वितान।
आनंद और बस आनंद का जहां होता नित्य भान ऐसा वितान।।

@नलिन#तारकेश

Sunday, 28 October 2018

राधा

भक्ति की धारा - राधा
☆☆☆☆☆☆☆☆☆

बड़ी प्यारी,मासूम,भोली है राधा।
कृष्ण प्रेम में बांवली है राधा।
तन-मन की सुध भूली है राधा।
हर घड़ी झूमती-नाचती है राधा।
कृष्ण-कृष्ण बस लौ लगी है राधा।
नाम बार-बार यही रटती है राधा।
यूं तो नहीं कहीं जाती है राधा।
यार को पास बुलाती है राधा।
बताओ वैसे कहां नहीं दिखती है राधा।
कण-कण तो अपनी बसी है राधा।
सांस-सांस जैसी भक्ति करती है राधा।
धड़कन कृष्ण की भी कहती है राधा।
भाग्यशाली सच में बड़ी है राधा।
त्रिलोकी को भी खूब नचाती है राधा।
कहते उसे तभी तो सभी हैं राधा।
कृष्ण से जो हमें मिलाती है राधा। 
धारा दरअसल भक्ति की है राधा।
प्यार,निष्ठा,समर्पण तो सभी है राधा।।

239-गजल:मचलती आंख

मचलती आंख पतंगों सी पेंच भिड़ा रही है। दुनिया से मगर देखो प्यार छुपा रही है।।

खुले नीले आकाश है यूं तो चौथ का चांद। चांद पूनम का मगर साजन को दिखा रही है।।

जिस्म तो एक उम्र बाद कर लेता है सबसे पर्दा।
ये तसुव्वरे रूह है जो हमेशा रिझा रही है।।

बियाबान मन के जंगल में दौड़ती-हांफती।        ये तमन्ना हजार हर दिन हमें मिटा रही है।।

नूर-ए-इलाही जो हमारे भीतर बस रहा है।
इनायत"उस्ताद"की उससे मिला रही है।।

Wednesday, 24 October 2018

शरद पूनम की रात

शरद रितु,निरभ्र नीले आकाश में पूनम वाली अलबेली रात।
चन्द्रदेव दूधिया ज्योत्सना संग अपनी विचरते सारी रात।।

यामिनी पुलकित अति उत्साह से सराबोर दिखती आज।
ज्ञात है उसे वषॆ में एक बार बरसता है मात्र अमृत आज।।

यूं तो नवल ब्रजकिशोर हमारे,प्रतिदिन करते नृत्य और गान।
आज पर इस दिन विशेष उल्लासित हो,करते नृत्य और गान।।

सम्पूणॆ रात्रि होता रहता मदिर हास्य,विनोद और किलोल।
स्वरलहरी ताल,मृदंगऔर पखावज की करती मस्त किलोल।।

राधा,विशाखा एवं ले अन्य समस्त गोपबाला को अपने संग।
नृत्य करते प्रभु महारास,छनकती पायल सब की संग-संग।।

भूल जाते स्वयं की सुधि सब आनन्द होता फिर तो यत्र-तत्र-सवॆत्र।
परमानन्द में निमग्न,बरसता सुधा-रस तीन लोक में यत्र-तत्र-सवॆत्र।।

पाता मगर ये दुलॆभ अमृत रसपान का सौभाग्य केवल वो ही जन।
भक्तिरस आकंठ डूब बनाया जिसने अपना उर-वृंदावन वो ही जन।।

@नलिन #तारकेश

Tuesday, 23 October 2018

हकायक के आफताब

हकायक* के आफताब पर,बादल छाए कुछ देर को।*सच्चाई
देखो खुद ही जल गए सभी,ठहर कहां मगर पाए कुछ देर को।।

हर्फ* दर हर्फ वो दर्द से भरता आ रहा पन्ना। सुकून लेकिन उसे जरा भी ना आए कुछ देर को।।*शब्द

मोहब्बत से ये दिल सरसार* है बेइंतहा उनके लिए।
बता दुंगा तफसील से वो जो मिलने आए कुछ देर को।।*डूबा हुआ

हर एक शय में है दिखती उसकी नायाब
कारीगरी।
आओ परस्तिश*कर उसे हम भी रिझाएं कुछ देर को।।*पूजा

अजब-गजब हर सांस बड़ी कशमकश है जिंदगी।
कभी रुलाए हमें तो कभी हंसाए कुछ देर को।

"उस्ताद" बना सकता है हर एक पत्थर को हीरा।
एतबार जो भीतर शागिदॆ भर पाए कुछ देर को।।

@नलिन #उस्ताद

Monday, 22 October 2018

वो देखो नशे में चूर

वो देखो नशे में चूर खय्याम आ रहे।
मिली उससे नजरें तो बेलगाम आ रहे।।

बिस्तर की सलवटो अभी इंतजार करो।
हमें तो इंकलाब के पैगाम आ रहे।।

सलवटें चेहरे पर अब भला कहां रहेंगी।
बहारों के जबसे देखो भरे जाम आ रहे।।

बजा है जब से चुनावी बिगुल महासंग्राम का। लेकर लाव लश्कर बड़के नेता तमाम आ रहे।।

किसी की किस्मत बदलने की जब वो हैसियत पा गए।
यार तो छोड़िए दुश्मनों के भी सलाम आ रहे।।

अजब सी मची है सारी दुनिया में अफरा-तफरी।
खुदा जाने हम जिंदगी के कौन मुकाम आ रहे।।

खून बहा जिन्होंने बदला मुस्तकबिल हमारा।
शेरदिल सिपाही हमारे वो गुमनाम आ रहे।।

उखड़ती सांसें महफिल की रवां हो गईं।
जब सुना पढ़ने"उस्ताद"कलाम आ रहे।।

@नलिन #उस्ताद

Tuesday, 16 October 2018

रामलीला

देख-सुन रामलीला,रावण की लीला करने लगे।
जलानी थी हमको लंका,अयोध्या पर भिड़ने लगे।।

शाम होते ही जुट जाते थे बच्चे लीला के वास्ते।
अब तो सबके हाथ मगर चैटिंग ही व्यस्त रहने लगे।।

शूर्पणखा के नाक-कान कहां काट पाए बिचारे लखन।
बचा-बहुत वो अपनी धोती,जैसे-तैसे भागने लगे।।

विदेह जनकराज जो बता खुद को पुजवा रहे थे।
अखबार उनके किस्से सुर्खियों में बेचने लगे।।

भाई से भाई लड़ रहे जब छोटी छोटी बात पर।
भरत से अजीज भाई भला यहां क्यों जन्मने लगे।।

राम से मतलब है ना मतलब देवी दुर्गा से।
धन्धों की तरह अब हर जगह पंडाल सजने लगे।।

मर्यादा जाने किस युग की बात हो गई अब तो।
अब तो अपने-अपने राम को सब मारने लगे।।

शबरी के गम में"उस्ताद"खरबों जमा कर लिए।
मरी हुई फिर लाश पर उसकी,रोटी सेकने लगे।।

@नलिन #उस्ताद

गजल-84 शहर पहचानता नहीं

अब तो मैं सच में अपना ही शहर पहचानता नहीं।
काट रहा यहां कौन अमन का सर पहचानता नहीं।।

जाने कौन है अजनबी कौन बाशिंदा पुराना। आदमी लगते सब एक हैं मगर पहचानता नहीं।।

अजब-गजब ईंट-गारे की बुलंद इमारतें यहां।
रहते हैं आदमी या जानवर पहचानता नहीं।।

जाने किस-किस को सजदा किया हसरतों की खातिर।
दरअसल रहमत पाक-परवर पहचानता नहीं।।

तोहमत लगा सरेआम जलील करना आसान है।
काम के बाद यहां कोई अक्सर पहचानता नहीं।।

सबके आगे दिल खोल तफसील से बैठ जाता है।
नादान है वो तो जमाने का असर जानता नहीं।।

रहता है वो सब के साथ  आसां ओ मुश्किल सभी दौर में।
दिक्कत बस एक यही,"उस्ताद"उसकी नजर पहचानता नहीं।।

@नलिन #उस्ताद

Sunday, 14 October 2018

गजल-86 ख्वाब में आते हो

ख्वाब में आते हो मगर हकीकत में आते नहीं।
मुझसे ऐसा खेलते हो खेल क्यों बताते नहीं।।

सुनाई थी जो तान मधुर कभी एक रोज। बांसुरी वही धुन क्यों तुम सुनाते नहीं।।

दिल चाहे कभी बातें करें बैठ इत्मिनान से। फुर्सत निकालो,यूं तो पकड़ यार तुम आते नहीं।।

थोड़ा तुम सब्र रखते और थोड़ा हम यकीं करते।
तो कभी फिर एक दूजे से हम तुम यूं बिछुड़ जाते नहीं।।

लगाए तो हैं रंग-बिरंगे हजार फूल किसम- किसम के।
परिंदे मगर जाने क्यों गुलिस्ता में अब गीत गाते नहीं।।

कभी ख़ुशी,कभी ग़म दिल को गहरे छू के जाते हैं।
पीछे मुड़कर मगर"उस्ताद"कभी सिर झुकाते नहीं।।

@नलिन #उस्ताद

Wednesday, 10 October 2018

जय जय मां भवानी


सभी को नवरात्रि की बहुत बधाई
☆¤ॐ卐☆¤ॐ卐☆¤ॐ卐

जय-जय मां भवानी,तू ही जगत शक्ति अविनाशिनी।
हे मां,हम बालक-वृन्द सब तेरे तू ही हमें पालती।।

कभी-कभी,हम अज्ञानवश भूल कर तेरे संस्कार को।
गुमान करने लगते प्रमाद में,स्वयंभू स्वयं को। तब तू ही पहले अति स्नेह दे,सींचती लाल को।
फिर ना समझे यदि तो,तोड़ती हमारे अभिमान को।

जय-जय मां भवानी,तू ही जगत शक्ति अविनाशिनी।
हे मां,हम बालक-वृन्द सब तेरे तू ही हमें पालती।।

जड़-चेतन सभी में,सत्ता तेरी एकमात्र प्रख्यात है।
कोई ना है तुझसे किंचित बड़ा,ये हमें पूर्ण विश्वास है।
दसों दिशा ब्रह्मांड जितने भी,ज्ञात और अज्ञात हैं।
सब भृकुटि-विलास का ही,ये तेरी चमत्कार है।

जय-जय मां भवानी,तू ही जगत शक्ति अविनाशिनी।
हे मां,हम बालक-वृन्द सब तेरे तू ही हमें पालती।।

तेरा भजन,तेरी भक्ति हो निरंतर,मां प्रति श्वांस में।
रहूं चाहे जितना भी जड़ बुद्धि,मैं किसी भी जनम में।
भ्रमर बन सुधा रसपान हेतु,रहूं श्री चरण में।
यही एक कामना,यही एक याचना है तेरे दरबार में।

जय-जय मां भवानी,तू ही जगत शक्ति अविनाशिनी।
हे मां,हम बालक-वृन्द सब तेरे तू ही हमें पालती।।

@नलिन #तारकेश

Monday, 8 October 2018

जीव बना नारायण

दस अश्व जुता रथ,जीव का निरंतर अग्रसर हो रहा।
कभी तीव्र गति,तो ये कभी मदमस्त,हौले हो रहा।।

"विवेक" को सौंपी थी वल्गा,सन्मार्ग आरूढ होने के लिए।
चतुर "मन" ने पथ पलायन किया,पर क्षुद्र स्वार्थ के लिए।।

कान में विवेक के,न जाने मन ने घुट्टी पिलाई कौन सी ।
संज्ञाशून्य सा जाने नहीं,चल रहा है वो राह कौन सी।।

मन हुआ अब प्रमुदित बड़ा,ये सोच स्वतंत्रता विलास की।
बेखौफ अलमस्त बढ़ा,पाकर वो आश्वस्ति सदा विलास की।।

समय के साथ किंतु देखो,इंद्री अश्व शिथिल हो गए। 
मन तो था वैसा ही चंचल,पर वह मरने से हो गए ।।

विवेक को भी अब धीरे ही सही,होश कुछ आ रहा था।
चिड़िया चुग गई खेत,वो भी जान ऐसा पछता रहा था।।

उस के स्वर में दैन्यता उपजी,और वो सात्विक रूदन करने लगा।
कर्म करूं क्या जो अब प्रमाद सुधरे मेरा, वो विचार करने लगा।।

उसके सरल मन की अभ्यथॆना ने, सौभाग्य से राह एक नई खोल दी।
कृष्ण ने खोली थी जैसी पार्थ की,दिव्य आंख उसकी भी खोल दी।

अब तो वो मगन हो,परमात्म-प्रेम में झूमने लगा।
बाल-मन भी पा नया झुनझुना,प्रमुदित झूमने लगा।।

विवेक भी समय के साथ निरंतर,शुद्ध परिष्कृत बढ़ता चला।
मन से अब अपेक्षा ना थी उसे कुछ,सो वो बढ़ता चला।।

भाव-कुभाव,दृष्टि बस पैनी रखते हुए, उसने मन को छुट्टा छोड़ दिया।
टोकाटाकी के बगैर मन भी,अंततः थक हार,जीव को सताना छोड़ दिया।।

देर-सबेर विलंब से ही सही चलो,जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो गया।
आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर "जीव" स्वयं निर्मल"नारायण"हो गया।।

@नलिन #तारकेश

बमुश्किल मिलते हैं

बमुश्किल मिलते हैं एक ही घर में, नए दौर में।
गुजारा जाने कैसे करेंगे,नए दौर में।।

बेजान चीजों की बड़ी कद्र है,रखते बड़े शऊर से।
लेते नहीं मां-बाप का पुरसाहाल बच्चे नए दौर में।।

बीती बात हुई औरत को कहना अबला,बात-बेबात में।
बढ़-चढ़ सीख रही,मर्दाना हथकंडे सभी नए दौर में।।

बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ है इश्तहार हर गली में।
बगैरत,जालिम अस्मत पर लूटते सरेआम नए दौर में।।

ठगी की दुकानें खोल बैठे हैं आज सभी अपनी-अपनी।
अपने,पराए निरा पागल वो बनाते दिखे नए दौर में।।

हवा,पानी सबको ही मैला-कुचला कर दिया बहुत।
ढोते हम सभी जनाजा ही दिखेंगे नए दौर में।।

हकूक के हमारे जो लेता है सुप्रीम फैसले। मोतियाबिंद बढ़ गया है इसका लगे नई दौर में।।

"उस्ताद"कदम दर कदम बदफेली*ही बढ़ रही हर तरफ।*अधमॆ
न जाने और कितना रसातल जायेंगे नए दौर में।।

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बांहों में भरकर गजल-24

बांहों में भींच सीने से लगाया उसने।
ये दिले-बंजर मेरा लहलहाया उसने।।

जेहन में उसको अपने बसा कर।
वजूद अपना ही भुलाया उसने।।

अंधेरी स्याह रात मिली थी वो उसे।
चौदहवीं की रात मगर बताया उसने।।

ददॆ बांटना था तो नजदीक चला जाता।
दूर से पर पूछ कर जख्म बढाया उसने।।

वो जाने कितना वाहियात है "उस्ताद"।
तकलीफ देकर ठहाका लगाया उसने।।

प्यार,तकलीफ कुछ तो है

प्यार,तकलीफ कुछ तो है बड़ा जाना-अंजाना मुझसे।
खुदा जाने क्या है बात-बेबात जो रिसता मुझसे।।

बच्चे ने मेरे डांटा जोर से जब मुझको।
लगा कुछ तो गुनाह हो गया मुझसे।।

बोलूंगा मैं तो खरा बिना लाग लपेट के।
रूठता है अगर वो तो रहे रूठा मुझसे।।

रहता है मेरे पास मगर बिना हक जताए। बेइंतहा है प्यार करता ऐसा मुझसे।।

नजूमी हूं मगर आसान कहां सब बता पाना। होता सही उतना ही बताए वो जितना मुझसे।

"उस्ताद"उसका मेरा रिश्ता कुछ अजब-गजब है।
बिना कुछ भी बोले मगर है बात करता मुझसे।।

Friday, 5 October 2018

देह थी जो कभी कंचन

देह थी जो कभी कंचन,नवनीत सी मेरी।
भर गई है सारी झुर्रियों से आज मेरी।।

न जाने कितने लेप,उबटन से थी सजाई।
परिणाम उसका देख मुझे आती रूलाई।।

पर सत्य तो सत्य ही है,चाहे हो निर्मम अति। जीवन गति तो सदा से,निर्बाध यूं ही बही।।

फिर भला क्यों दुःख,पीड़ा,निराशा है उपजती।
देह को ही अपनी अस्मिता पूणॆतः मानती।।

"तारकेश"ने दिए जब हमें मन,आत्मा और बुद्धि।
जिनमें छुपी है संभावनाओं की अपार शक्ति।।

स्थूल पर ना रुकें,आरूढ हों अब सोपान-प्रगति।
मन के विराट विस्तार से,बने हम आत्मक्षेत्री।।

हम तो चिरकाल से ही रहे,सदा ईश-अंशी।
पहचानने को चाहिए,बस स्वतः दृष्टि थोड़ी।।

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Wednesday, 3 October 2018

हृदय मेरा जब से

हृदय मेरा जब से,निष्पापी-निर्मल राधा हुआ। तन मेरा नील-"नलिन",कृष्ण में रूपांतरित हुआ।।

देह थी मेरी और नहीं भी,ये आभास जब हुआ।
अप्रतिम,आलोकमय श्री गणेश जीवन का नूतन हुआ।।

जड़ चेतन में तो,चेतन का जड़ में उलटफेर हुआ।
प्रेम-सलिल सकल सृष्टि फिर,अनवरत गतिशील हुआ।।

तन-मन,हृदय-हंस,रोम-रोम अब आप्लावित हुआ।
कभी नर्तन,कभी मौन-ब्रह्मलीन परिचय आम हुआ।।

दुःख-सुख,कष्ट-मोद,बस जीवन पक्ष का
नाम-भेद हुआ।
आनंद ही आनंद बरसे,नित्य परमानंद हुआ।।

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सुकून की तलाश में

सुकून की तलाश में भटक रहे लोग।
वो मिला पर वहीं जहां थे खड़े लोग।।

डर है जाने कैसा अपनों से आजकल।
बहुत कटे-कटे से रहने लगे लोग।।

खुद ही पहले घर अपने जला रहे हैं।
बेवजह फिर और पर चिल्ला रहे लोग।।

यूं तो तेजी से बदल रहा जमाना सब तरफ। दकियानूसी पर अभी भी बहुत बचे लोग।।

"उस्ताद"को कौन पूछता है अब भला।
मठ खड़ा कर खुद ठेकेदार बने लोग।।

Monday, 1 October 2018

कुछ हवा कुछ झाग

कुछ हवा,कुछ झाग वो बुलबुला मचलने लगा।
पल भर में ही देखिए मगर फना होने लगा।।

छोटे बच्चे सा था उसका दिल-ए-मासूम। मिला ना उसे इश्तियाक*तो सिसकने लगा।।
*अभिलाषा

कसता देखा जो शिकन्जा पुलिस का ।
खुद को बड़ा बीमार बताने लगा।।

मुत्तहिद*हो उसका गम बांटा तो।*मेलमिलाप
लिपट कर फफक वो रोने लगा ।।

नई नस्ल के देख कर वो हौंसले।
जवानी की उमर याद करने लगा।।

उसकी आंखों में अपना अक्स जो देखा।
रंग-बिरंगे सपने नए संजोने लगा।।

यूं तो कुछ है नहीं झूठ,फरेब के सिवा यहां। बेवजह "उस्ताद"मगर दस्तूर निभाने लगा ।।