Monday, 30 October 2017

जाने क्यों उसे वो"उस्ताद"कहता रहा

इशरतगाह जो गौरा-शिव का होता रहा
खाकसार वही तेरा पुरखाई ठौर होता रहा।

जाड़े की सौंधी-सौंधी पहाड़ की धूप में
सना नींबू दही कमाल खूब करता रहा।

आड़ू,खुमानी,काफल भर जेब खाते हुए
चढना पहाड़ राई-रत्ती न खलता रहा।

बुरांश,मोनाल,ब्रह्मकमल यहाॅ का दाज्यू
कस्तूरी-मृग सा सदा सरताज रहता रहा।

सीधा,सरल मगर पहलवान भीम सा
डोट्याल यहाॅ मददगार मिलता रहा।

रंगों की असली छटा तो यहीं है बिखरी हुई
घोल रागों में होली सब पर छिड़कता रहा।

शाम को एक चक्कर लगा जो बाजार का
हर शख्स खुलकर सबसे मिलता रहा।

इल्म में जो सदा का जाहिले सरताज है
जाने उसे क्यों वो"उस्ताद"कहता रहा।

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