Saturday, 28 October 2017

दौरे उस्ताद का जिक्र जितना करें वो कम है

वो फड़फड़ाता तो बहुत है फलक में उड़ते हुए
ऑखों में बसा है एक सपना उसके उड़ते हुए।

गजल कुछ लीक से अलग हटकर जो लिख रहा हूॅ
सोचा तुझे आगाह कर दूॅ इससे पहले मिले तू
पढते हुए।

काबिलियत पर हमारी जरा भी न हैरान हों हुजूर
कैंची भी चलायी बहुत हमने साईकिल चलाते हुए।

चिटकन,कुंडी होती नहीं थी पहले आशियानों में
रोकते थे किसी को"बड़े घर" बस खाॅसते हुए।

तकियाकलाम हो आदत या अदा बेजोड़ किसी की
बुलाते रहे बस उसी नाम सब उसे चिढाते हुए।

कंचे,लूडो,पतंग और कबूतरबाजी के शौक सारे
भूले न भुलाए जाते बुढापे में कदम रखते हुए।

दौरे"उस्ताद"का जितना करें जिक्र कम होगा
बहुत थे तब खलील खाॅ फाख्ते उड़ाते हुए।

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