Sunday, 1 October 2017

तसबीह फेरते-फेरते मुद्दत हो गयी

तसबीह फेरते-फेरते एक मुद्दत हो गयी
तू न मिला जाने कैसी तकदीर हो गयी।

जमाने के दस्तूर भी कमबख्त अजब हैं
निभाते-निभाते मगर कुछ देर हो गयी।

तकदीर में था बदा शायद वो मेरे लिए
आज उससे तभी तो ऑखे चार हो गयी।

गुपचुप लिखी थी चिठ्ठी जो उसके लिए
वो आॅखों में पढ़कर उसे मीरा हो गयी।

वो बेवफा नहीं यकीं है अब तो पूरा मुझे
"उस्ताद"मनाऊॅ सौ बार ये आदत हो गयी।

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