Thursday, 26 February 2015

320 - विभीषण - गीता

संत तुलसीदास जी रचित रामचरितमानस के लंकाकाण्ड  - दोहा 79 पश्चात से दोहा 80 तक  


                                 रावण गर्व से भरा सुसज्जित स्वर्ण रथ पर था सवार 
                            वहीँ राम रथ विहीन युद्ध को नग्न पाँव खड़े थे तैयार।
यह देख फिर विभीषण के मन विछोभ अति होने लगा 
अतिशय प्रीति के चलते उसे जीत पर संदेह होने लगा। 
नील "नलिन" चरण राम के दंडवत हो कहने लगा 
नाथ रावण है बली पर आप तो विहीन शीश पगा। 
अब धुरंधर यह दुष्ट भला कहिये शीघ्र कैसे मर पायेगा 
सत्यं,शिवं सुन्दरं का परचम क्या कभी फहर पायेगा। 
तब आश्वस्त कर प्रेम,करुणा से भर राम ने ये कहा 
हे *धर्मरुचि युद्ध विजय चूमे वह रथ और ही रहा। 
शौर्य,धीरज हैं इस विजयश्री रथ के दो पहिये बड़े 
जिन पर सत्य,सदाचार के झंडे मजबूती से हैं गड़े। 
बल,विवेक,इन्द्री-जीत,परहित हैं इसके अश्व चार 
छमा,दया,समत्व की डोर से बंधे सँभालते भार। 
हरिस्मरण करता भक्त ही इसका सारथी सुजान 
विरक्ति की ढाल लिए चले संतोष की थाम कृपान। 
दान का फरसा उठा वह प्रचंड बुद्धि की ताकत लिए 
उत्कृष्ट कोटि ज्ञान से संपन्न धनुष भीषण हाथ लिए। 
मन स्थिर,निर्मल तरकश,यम-नियम,संयम के आयुध रहे
विप्र,गुरु आशीष रक्षा कवच वह विजय पर शंकित क्यों रहे।
मित्र,बंधु,सखा,प्रिय भक्त मेरे तुम क्यों हो भला डरते 
इस दिव्य रथ के आगे शत्रु भला है कौन हैं शेष रहते। 
भवसागर से अजेय रिपु को भी जीत सकता है हर "धर्मरुचि"
मन-प्राण से दृढ विश्वास हो और सदा रखे जो भगवद रूचि।
आराध्य अपने श्री राम के मुखारविंद से सुन पावन वचन 
गदगद हर्ष से वह "नलिन"नयन,दंडवत हो गया प्रभू चरन।

*धर्मरुचि : विभीषण का पूर्व जन्म का नाम 


नोट: यह प्रसंग मुझे अतिप्रिय है। इसके पीछे एक किस्सा भी याद आता है। एक बार इस प्रसंग पर एक स्वामीजी लखनऊ में व्याख्यान दे रहे थे। मैं भी गया था। रात लौटते समय साइकिल  का टायर पंचर मिला। शायद १० - १०. ३० का वक्त होगा  तो पंचर ठीक करने वाला मिलना नहीं था। ख़ैर उसको घसीटते और स्वामीजी के विरथ रघुवीरा के बल से अनुप्राणित ३-४ किलोमीटर चला कि इंद्रा ब्रिज के नीचे एक निद्रामग्न पंचर ठीक करने वाला मिल गया,मगर थका होने से उसने मदद तो नहीं की हां अलबत्ता पंप से खुद हवा भरने की इजाज़त दे दी। ऐसे में टायर और घिसने का डर था पर क्या करता  दूरी अभी बहुत थी तो यह मदद भी काफी लगी। आधे रास्ते में हवा फिर निकल गयी। और अब तो जैसे-तैसे घर पहुँचना ही था ,सो पहुंचा। मगर तब और आज भी सांसारिक साधन जब-जब  पंचर हो जाते हैं तो अनायास यही प्रसंग ऊर्जा भरता है और कदम घिसट-घिसट ही सही मंजिल को बढ़ने लगते हैं। जय श्री  राम।  
   

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