Sunday, 15 February 2015

313 - प्रीतम प्यारे तुम ही



प्रीतम प्यारे तुम ही कान्हा,हम सब जन -जन के
सदा हो तुम हर छन व्यापे,तन-मन में हम सबके।  


रूप-अनूप,सदा लुभाता,नैनों में हम सबके 
जाने कैसी रोज पिलाते,मदिरामृत तुम चुपके।


लाज-शर्म कहाँ जग की,जरा बूँद भर रह जाए 
बाँहों में भर लूँ मैं तुझको,जहाँ कहीं दिख जाए। 


सदा हमें तू बड़ा सताए,आँखों से जा छुप के 
पर हार कहाँ हम तो मानें,ढूंढ निकालें मिल के। 


श्याम चरन कोमल स्पर्श से,जनम सफल हो जाते 
प्रीतम प्यारे के अंगराग से,देह "नलिन"खिल जाते।

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