Saturday 3 September 2022

462: ग़ज़ल

गजल सुनकर वो तो मेरी रोने लगा था।

बेसबब उसका ही दर्द बयां हो गया था।।


दु:खती रग शायद रख दिया था हाथ उसकी।

बेवजह ही मुझे वो चारागर समझने लगा था।।


यूँ तो बीमार है यारब यहाँ हर कोई।

हमको ही मगर अपना ना पता था।।


चेहरे पर देखो हवाइयां उड़ रही हैं उसके।

जमाने का दरअसल वो सताया हुआ था।।


अजनबी हो गया है यह अपना ही शहर हमसे।

बदलेगा वक्त करवट ऐसे किसको ये पता था।।


लिखते हैं कलाम "उस्ताद" जो हर रोज हम।

दर्द निथारना ये निहायत जरूरी हो गया था।।


नलिनतारकेश @उस्ताद

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