Monday, 6 December 2021

गजल:402 - मंझे उस्ताद भी--

ना सही जाम,चाय की चुस्कियां ही लीजिए।
कभी साथ बैठ हमारे गुफ़्तगू भी कीजिए।।

वक्त की बेड़ियों में यूँ तो आवाज नहीं होती। 
थोड़ा ही सही मगर दर्द अपना बयां करिए।।

महफिलें तो चलती हैं हवाओं के बहने से।
झरोखों को अपने जरा खुला तो छोड़िए।।

माना है दुनिया में रंज,तकलीफ ही चारों तरफ।
चेहरा आफताबे* रुख भी तो करके जरा देखिए।।*सूर्य 

मंझे "उस्ताद" भी यूँ तो भँवर में डूब जाते हैं।
किनारों में खड़े क्यों भला फिर सिसकियाँ भरिए।।

@नलिनतारकेश

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