Thursday, 28 September 2017

कहता हूँ समेटो न सोच में

कहता हूँ  समेटो न सोच में अपनी मुझे
आवारगी खुद न समझ आती अपनी मुझे।

समंदर सा गहरा आकाश सा फैला हुआ हूँ
जर्रे जर्रे में दिखती है तस्वीर अपनी मुझे।

जीना मरना होंगी जरूर तुम्हारे लिए बातें बड़ी
लहरों की तरह कहाँ रही परवाह अपनी मुझे।

उड़ते परिंदों से आसमां को भला कैसी जलन
लबों पे सबके मुस्कान लगती है अपनी मुझे।

कुछ की कुछ बताएं बात बेवजह लोग सारे
जो बात है दिल में कह दो सारी अपनी मुझे।

सुरखाब  के पर लगे भी हों तो कहो क्या करें
ये दुनिया "उस्ताद" कभी लगी न अपनी मुझे।      

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