Wednesday, 13 September 2017

काबिल उस्ताद होना अब आसान नहीं

हिन्दी का कमॆकाण्ड तो हर साल हो रहा
बाजार अंग्रेजी का मगर बम-बम हो रहा।
गिटपिटाना नवजात घुट्टी में पी रहे सभी
मादरे-जुबां हिकारत भरा नाम हो रहा।
बुद्धिजीवी हर कोई बिकने लगे अब तो
जाने कैसी आजादी का सवाल हो रहा।
जीते जी माॅ-बाप को पानी न दे सके जो
स्वाथॆ के चलते उनके घर श्राद्ध हो रहा।
मासूम के साथ दरिन्दगी कैसे लिखें कहो
पत्थर दिल कलेजा कितना आम हो रहा।
काबिल"उस्ताद" होना अब आसान नहीं
आरक्षित हर गधे का सम्मान आम हो रहा।



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