Thursday, 27 May 2021

गजल:334-खता रब से

झूठ ये दावा जाने क्यों बेकार करता हूँ।
दिल से ही कि तुझे बस प्यार करता हूँ ।।
जलेबी सी बातें बना के बहलाते हैं लोग मुझे।
मासूमियत के चलते मगर ऐतबार करता हूँ।।
अमावस की रात काली है जब कभी भी आती।
बैठ छत में अपनी पूनम का इंतजार करता हूँ।।
खता की है वादाखिलाफी की हर बार रब से।
देर ही सही उम्रे ढलान मगर इजहार करता हूँ।। 
गम नहीं जो न आया वो चौखट पर कभी मेरी।
डूबा हूँ इस कदर की खुद ही में दीदार करता हूँ।।
इन हाथों ने बीने हैं अंगारे "उस्ताद" तजुर्बों से।
यार यूँ ही नहीं नई नस्ल को होशियार करता हूँ।।

@नलिनतारकेश 

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