Wednesday, 26 May 2021

गजल 333

दखलअंदाजी किसी को अब भाती नहीं है।
बिना चोट खाए समझ हमें आती नहीं है।।

दिन में देखने लगा हूँ जाने कितने सपने मैं।
सो रातों को नींद पल भर भी आती नहीं है।।

डालों में आम अब पकते दिखते ही कहाँ हैं।  
गीत कोयल तभी तो बागों में गाती नहीं है।।
 
याद करता ही नहीं अब कोई किसी को यहाँ।
हिचकी ता उम्र तभी तो आती-जाती नहीं है।।

क्या हाल कर दिया हमने जन्नत सी जिन्दगी का।
"उस्ताद" हमें तो ये जरा भी अब भाती नहीं है।।

@नलिन तारकेश 
 

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