Sunday, 30 May 2021

रब मिलता है

दर्द हो शिद्दत से अगर गहरा तो रब भी दिखता है। 
पाक़ीज़ा प्यार तो उसका बमुश्किल से मिलता है।।
जो छलक जाए आँसू तो बस खारा ही बहता है।
मोती तो वो बस सीप सी निगाहों में बनता है।। 
दर्द की ख्वाहिश तो बड़ी थी कि तोड़ दे बाँध सभी।
काजल लगी आँख मगर वो छलक कहाँ सकता है।।
मिलती नहीं है मुहब्बत अशर्फियों से बाजार में।
दर्द तो बेहिसाब दामन में अपने पालना पड़ता है।।
वो मिल जाए सो "उस्ताद" खुद को छलनी कर लिया।
जानता कहाँ था उसे पाने का दर्दे पैमाना इतना बड़ा है।।

@नलिनतारकेश 

सुर सधे न सधे

सुर सधे न सधे गुनगुनाना चाहिए।
खुद से भी हमें बतियाना चाहिए।।
हर कदम दुश्वारियां आती रहेंगी यूँ तो।
छोड़ सभी फिक्र खिलखिलाना चाहिए।। 
चांद आसमां का कहाँ उतरता है जमीं पर। 
भरके परात पानी खुद को बहलाना चाहिए।। 
अच्छा है हार के भी एतबारे तकदीर रखना।
पुरजोर तकदीर को मगर आजमाना चाहिए।।
खैरखाह* होने से कतराते हैं लोग अब सभी। *हितैषी
रिवाज मगर आदिमयत का बचाना चाहिए।।
आलिम-फाजिल* हो माना "उस्ताद" तुम। *प्रकांड पंडित 
कभी बन के थोड़ा-बच्चा गपियाना चाहिए।।

@नलिनतारकेश

Friday, 28 May 2021

भक्तिभावधारा

निर्मल भावनामयी,हिमशिखर के उच्च दिव्यागार से।
भक्तिमति गंगा प्रवाहित होती,जब प्रखर साधना से।।
कल-कल,मधुर हृदयस्पर्शी कूकती फिरती,है वो बड़े भाव से।
नाद-निनाद करते हैं अब सभी जीव,उन्मुक्त हो उल्लास से।।
ज्ञान होता है उन्हें कि,होंगे मुक्त अब सभी विकार से।
मिलेगा दिव्यामृत का पान,अब तो अत्यंत सौभाग्य से।।
पग धरेगी,रुन-झुन पायल बजाते,वो तो अग्रगामी चाव से।
निर्माण होगा हर घड़ी,अलौकिक परिवेश का फिर प्यार से।।
त्रिपथगामी भक्ति-धारा करेगी मुक्त सबको, त्रिताप से।
जो भी गहरी डुबकी लगाएगा उसमें,तन-मन-प्राण से।।
कनक-कान्तिमय जीव होगा,पारस सदृश छूने मात्र से।
निज आत्मरूप को पहचान होगी,भेंट अपने इष्टदेव से।।
दु:ख,पीड़ा,कष्ट,व्याधि सब मिटेगी,तत्काल ही कृपा से।
परमानंद होगा फिर तो नित्य ही,रोम-रोम आराध्य से।।
निश्छल करें यदि हम समर्पण,पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से।
आते हैं स्वयं प्रभु साकार रूप,बस भक्त की एक पुकार से।।


@नलिनतारकेश 

Thursday, 27 May 2021

गजल:335- बात आसां कहॉ

साधन करते कभी तो ये उम्र गुजर जाती है।
मगर मजाल जो उसकी इनायत हो पाती है।। 
इसके उलट यूँ दिखता है ऐसा भी कभी तो। 
बिना किए कुछ भी तकदीर बदल जाती है।। 
तकदीर,तदबीर में अक्सर ही होती है कशमकश।
बात ये आसां कहाँ जो हमें समझ
आती है।। 
शहंशाह बने जो बहुत फिरते हैं बिना बात के। 
यही गुरूर तो हमारा कुदरत तोड़ जाती है।। 
दिल में खिले हों अगर मुहब्बत के गुलाब।
बताना न भी चाहे हम आँखें बताती हैं।।
इशारों से रब के चलता है दुनिया का कारोबार।
बस हमें यही एक बात "उस्ताद" भाती है।।
@नलिनतारकेश 

गजल:334-खता रब से

झूठ ये दावा जाने क्यों बेकार करता हूँ।
दिल से ही कि तुझे बस प्यार करता हूँ ।।
जलेबी सी बातें बना के बहलाते हैं लोग मुझे।
मासूमियत के चलते मगर ऐतबार करता हूँ।।
अमावस की रात काली है जब कभी भी आती।
बैठ छत में अपनी पूनम का इंतजार करता हूँ।।
खता की है वादाखिलाफी की हर बार रब से।
देर ही सही उम्रे ढलान मगर इजहार करता हूँ।। 
गम नहीं जो न आया वो चौखट पर कभी मेरी।
डूबा हूँ इस कदर की खुद ही में दीदार करता हूँ।।
इन हाथों ने बीने हैं अंगारे "उस्ताद" तजुर्बों से।
यार यूँ ही नहीं नई नस्ल को होशियार करता हूँ।।

@नलिनतारकेश 

Wednesday, 26 May 2021

गजल 333

दखलअंदाजी किसी को अब भाती नहीं है।
बिना चोट खाए समझ हमें आती नहीं है।।

दिन में देखने लगा हूँ जाने कितने सपने मैं।
सो रातों को नींद पल भर भी आती नहीं है।।

डालों में आम अब पकते दिखते ही कहाँ हैं।  
गीत कोयल तभी तो बागों में गाती नहीं है।।
 
याद करता ही नहीं अब कोई किसी को यहाँ।
हिचकी ता उम्र तभी तो आती-जाती नहीं है।।

क्या हाल कर दिया हमने जन्नत सी जिन्दगी का।
"उस्ताद" हमें तो ये जरा भी अब भाती नहीं है।।

@नलिन तारकेश 
 

जीवनपथ पर कर्म और निष्कामता 卐卐ॐ卐卐ॐ卐卐ॐ卐卐ॐ卐卐

जीवनपथ पर कर्म और निष्कामता
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क्या-कहें कैसे कहें,सब खुद को मिले अपने चरित्र का ही निर्वाह कर रहे।
भला-बुरा,जैसा भी मिला बस,उसे हम तो रो या हँस के  निभा रहे।।

डोर तो है सब प्रभु के हाथ में,वही प्रत्येक श्वास सबको नचा रहे।
बनके अभिनेता जाने क्यों हम,खुद पर ही फिर बार-बार इतरा रहे।

जो मांगते रहे,प्रभु से प्रार्थना कर बार-बार,वही निभाने को हमको मिला। 
अब हर पात्र में गुण-दोष तो होगा,फिर भला हम क्यों उससे कतरा रहे।।

"एकनिष्ठ"जो भी विश्वास पूर्णता से,मात्र हरि इच्छा पर ही करते रहे।
वही जीव,जीवन पर्यंत हरि-कृपा का,पग-पग पर अनुभव करते रहे।।

वल्गा*,विवेक-बुद्धि की देने को कर्मरथ आरूढ जीव को हरि तत्पर रहे।*लगाम
देह-बुद्धि-अहं से उठकर परे,जो कोई  ईश को कण-कण देखते रहे।।

@नलिनतारकेश

Monday, 24 May 2021

आत्म नलिन तो

यद्यपि आया जो शरणागत,प्रभु सबको तूने तारा है।
पर जाने क्यों खुद से ही मुझको,बार-बार बुलाया है।।

अनजान बना,बस रहा निमग्न,खेल जगत का भाया है। बांकी छवि छोड़ के तेरी,सब कुछ इस मूढ़ ने चाहा है।।

जीव यह कितने जन्मों से,पतित,अपावन सदा रहा है।
फिर भी तू तो इस पामर पर,कृपा सदा बरसाता है।।

जाने किस कारण से तूने,मुझको अपना बना लिया है।
देख-देख बस इसी बात को,कौतुक सबको रहता है।।

यद्यपि आत्म-नलिन तो,हर जीव का निर्मल होता है।
जान-बूझे मगर तभी वो,जब हरि खुद से समझाता है।।

@नलिनतारकेश 

Sunday, 23 May 2021

साधना

त्रिस्पर्शा योग युक्त मोहिनी एकादशी की बधाई 
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सरस्वती भी बुद्धि फेर सकती है मात्र मंथरा की।
होती नहीं हिम्मत उसे जो डिगा सके श्रीभरत की।।
साधक बड़े-बड़े फिसल जाते यहाँ तो बस इसलिए।
करते नहीं बारीक आत्मालोचना जो नित स्वयं की।।
कुंजी मिलती कर्म,ज्ञान,भक्ति योग की मनोवांछित।
निष्कपट,दृढ शरणागति करें जो हम अपने राम की।।
नचाता तो है वही अन्ततः हम सभी को अपनी ताल पर।  एकनिष्ठ मगर होती नहीं चिन्ता कभी भी दुर्गम मार्ग की।।
परिवेश का भी प्रभाव पड़ता नहीं है सच्चे,शुद्ध जीव पर।
हिरण्यकशिपु घर कैसे पलती वरना भक्ति प्रहलाद की?

@नलिनतारकेश 

Friday, 21 May 2021

हे नाथ

हे नाथ,हे मेरे नाथ-प्रभु श्री राम।
बोलो कब करोगे मुझे तुम सनात।।
 मैं विकल करता कब से पुकार।
पर जाने क्यों देते नहीं कान।। 
यद्यपि अवगुणों से भरा हूॅ अथाह।
जानता हूॅ ये भली-भांति दयानिधान।। 
पर कहो तुम्हें छोड़ किस पर करूं आस। 
तुम ही तो हो सारे प्रश्नों का समाधान।। 
एक बार जब पकड़ लेते हो हाथ।
फिर कहां डूबने देते हो भवसागर मंझधार।।
जय श्रीराम। जय श्रीराम। मेरे श्रीराम।।