Wednesday, 3 March 2021

गजल - 324 कर्म का थप्पड

ये जो मासूम बनके तू छुरा घोंपता है।
अरे नासमझ अल्लाह सब देखता है।।

जूतियाॅ उठाने में उम्र कट गई सारी।
किस मुँह खुद्दारी की बात कहता है।। 

पोतेगा कालिख तेरा शहर ही तुझ पर एक दिन।
बरगलाता काहे आवाम को हर वक्त रहता है।।

एक मुद्दत से यहाँ गरीब एड़ियां रगड़ रहा।
फरियाद सुनना काहे तौहीन समझता है।।

सर से पानी उतरने ही वाला है गुस्ताखियों का।
नादान सब्र का काहे भला इम्तहान रखता है।।

सहारा उसे क्या चाहिए यहाँ किसी का कहो। 
कहे बगैर जब खुदा उसका हर काम करता है।।

खैंची लकीरों से अपनी ही गुजरता है "उस्ताद" हर कोई।
 भला ये वक्त भी कब,कहाँ किसका गुलाम बनता है।।

नलिन "उस्ताद "

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