जन्नत ही मानो उतर आती है सामने आंगन में।।
चांद आपका खिलखिलाए जब-जब रोशनी बिखेर।
जेठ की धूप,चांदनी सी लहलहाती दिखे आंगन में।।
वो मासूम,भोला-भाला सच में दिखता तो बहुत है।
मगर बनाए ये रंगमंच अपनी हरकतों से आंगन में।।
नेमत तो हज़ार हैं हमपे खुदा की गिनाऊं कितनी मैं।
उतर आता है मानो खुद ब खुद बचपन के आंगन में।।
लिखने को तो बहुत है मगर लिखे "उस्ताद" कैसे।
बस बनकर खुद ही बच्चा निहारता उसे आंगन में।।
Bahut sunder
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