जाकर वहीं मंदिर खुद को उसके हवाले करते हैं हम।।
ये कैसा नया समाज बनाने में आजकल लगे हैं हम।
रईसी तो बढ़ी है मगर दिमाग से पैदल हो रहे हैं हम।।
शहर-शहर,बेदर्द हो ग़लत नज़र से देखते हैं औरत को।
देवी की तरह यूं उसे पूजने का बड़ा ढोल पीटते हैं हम।।
जाने कब बचपन से जवानी और बुढ़ापे की तरफ आ गए।
गुरूर ऐसा,जैसे चांद-तारे सब बस में अपने रखते हैं हम।।
कहा तो उसे "उस्ताद" मगर सुनी कहां उसकी ज़रा भी है।
असल रोना है ये,फिर चाहे बाद में बहुत पछताते हैं हम।।
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