क्या अच्छा न होता,जो थोड़ा पढ़ लेता,मैं अपने मन को।।
स्वप्न देखना सुखद बहुत है,पर किंचित कुछ आधार तो हो।
सघन लहरों सी जीवन सरिता में,एक अदद पतवार तो हो।।
बहुत पढ़ा,बहुत लिखा,पर छू न पाया एक भी मन को।
जो अन्तर्मन उतार मैं लेता,छू पाता फिर सबके मन को।।
कर्म प्रधान विश्व है सारा,ये हमने,तुमने,सबने माना सही हो।
लेकिन जो न मानें पूर्वजन्म तो,ये सिद्ध भला फिर कैसे हो।।
जगत स्वरूप है अपना ही,जैसे छवि दिखलाता दर्पण हो।
विषय दुरूह,पर सरल भी उतना,जो हरि से तार जुड़ा हो।।
नलिन "तारकेश"
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