घर से दो कदम भी,अक्सर मैं निकलता नहीं हूं।
हां निकल जाऊं तो,पंख अपने समेटता नहीं हूं।।
खुद ब खुद ही आकर पंख लगा देता है कोई न कोई।
सच ये है इसकी खातिर किसी से कुछ कहता नहीं हूं।।
जो बन के हसीं हमसफ़र साथी,सफर में वो बांह थामे।
लम्बे रास्ते चाहे उबड़-खाबड़,कभी मैं घबराता नहीं हूं।।
झरने,समंदर,पहाड़,झीलें और वादियां हरी या खुश्क सी।
जाने कहां-कहां,कैसे-कैसे नज़ारे कहूं कैसे देखता नहीं हूं।
तजुर्बा तब्दील हुआ हकीकत "उस्ताद" अब तो बस यही।
संभाले है डोर मेरी वही,खुद से मैं कुछ भी करता नहीं हूं।।
No comments:
Post a Comment