अगवा कर जाने कहां बादलों ने छुपा दिया बरखा को।
चौड़ा कर सीना नाटक करते ऐसे जैसे ढूंढ रहे हों बरखा को।
दादुर,मोर,पपीहा हैं देखो कितने गमगीन सभी मरे-मरे मुरझाते होंठ ढूढ रहे हैं बरखा को।।
जुल्फ घनी-घनी हैं इसकी, चेहरा सुर्ख कपूर सा।
यौवन मदमस्त इठलाता,जाने कहां छुपाया बरखा को।।
छाती फटने को, है गमजदा इस कदर धरती माॅ।
दरख्त बेहाल,थके से सभी ढूंढते बरखा को।।
दुआ का भी असर होगा आखिर कब तक "उस्ताद"कहो तो।।
जागीर समझ हमने भी तो कभी ना पूछा दिल का हाल बरखा को।।
@नलिन #उस्ताद
No comments:
Post a Comment