सोचता हूँ इस ईद पर
हामिद की तरह ले आऊं
एक अदद चिमटा
अपनी दादी,याने अपने पिता
अपने सृजनहार की माँ के लिये
अपनी कायनात के लिये।
जिससे न जले उसका हाथ
कभी रोटी पकाते हुए।
क्योंकि रोटी तो जरूरी है
इस दुनिया के तमाम ख़्वाबों में
हकीकत की सच्चाई भरने के लिये।
लेकिन फिर सोचता हूँ
बूढी माँ कहाँ मानेगी
वो तो अपन हाथ जलायेगी ही।
क्योंकि उसके लिये
वो एक सौभाग्य,एक उत्सव है।
जो स्थानांतरित करती है
हवन में दी जाने वाली
प्रत्येक आहुति की तरह
अपनी ऊष्मा को लाडले के लिये।
दरअसल उसकी नाभि से प्रस्फुटित
प्राण संवाहक ऊष्मा
हथेलियों से गुजरती हुई
अँगुलियों तक आकर
गर्म रोटी पर घी सी
पिघल जाती है
उसकी लज़्ज़त,उसकी मिठास बनकर।
तभी तो उसका लज़ीज़ स्वाद
मेरे खुद के वज़ूद की पहचान
बनाएं रखने के लिये
मेरी जिजीविषा को जागृत कर
आस्था का संबल दे जाता है
रात के गहन अंधकार में भी
ईद के चाँद की तरह।
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