जो हट या मिट न सकें
वो तो "इज्जत का कमरा "
जो खुले आसमान के नीचे
आँगन में बना है
के उस दरवाज़े से हैं
जो खुला छोड़ देने से
पागलपन की बरसात में
भीगकर , फूल जाता है
और बड़ा हो जाने से
बंद नहीं होता
"बस "
लेकिन दरवाजे का क्या
लेकिन दरवाजे का क्या
इलाज़ नहीं किया जाता ?
बढ़ने दिया जाता है उसे
अपनी इज़्ज़त का फालूदा
अपनी इज़्ज़त का फालूदा
खुद बनाने के लिए
नहीं, कभी नहीं
समझते ही एकदम
दरवाजा ठोंक-ठांक कर
इस लायक कर लेते हैं
कि चिटकनी लग सके
फिर चाहे "घर वाले"
थोड़ी देर भड़-भड़ से
परेशान ही क्यों न हों
और अगर फिर भी
"दरवाज़ा " अड़ा
न बंद हुआ तो
रन्दा चलाते हैं
बढ़ी लकड़ी को बराबर
बारीकी से छीलकर
चिकनाहट लाने के लिए .
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