शक-शुबह की राजनीति अब रहने दीजिये।
उम्मीद-ए-किरण,आफ़ताब* बनने दीजिये।।
*सूरज
अंधेरे को कोसने का दस्तूर अब ठीक नहीं।
बस दीपक जरा अखन्ड विश्वास का जला दीजिये।।
हाथ में हाथ ले अब बढ़ चलें हम सभी।
माहौल अब ऐसा भी बनने दीजिये।।
खुशगवार होने का जब बन रहा सिलसिला।
सपने कुछ नये हर दिशा महकने दीजिये।।
दायरे संकीर्ण स्वार्थ के अब तो तोडिये जरा।
अच्छा-भला कुछ दिमाग को"उस्ताद" सोचने दीजिये।।
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