बादल फटे,दिल दहल गये हम सभी के
लो दिख गये विविध रौद्र रूप प्रकृति के।
यहाँ से वहाँ जल ही जल हो गया पल में
बच न सका फिर कोई जो फँसा भवँर में।
मवेशी, वाहन, घर, दुकान जो कुछ पड़े रास्ते में
नर- नारी,युवा-बाल सभी डूबे उस जलजले में।
बच गये जो शेष, बिछुड़े अपने साथियों से
वो खाते क्या, सो मर गये तड़फते भूख़ से।
लेकिन भला क्या कुछ सीख पाए हम इस हादसे से
सीखते ही जो अगर तो ,फिर क्यों होते ऐसे हादसे।
हम तो लूट - खसोट ओर रह गये बस बंदरबांट में
धरती को माँ कहाँ ? वेश्या सा लूटते रहे बाज़ार में।
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