पूर्णिमा का चाँद खिला आकाश
दे रहा मुझे आमंत्रण चुपचाप
अंतर्मन का विस्तारमयी वितान
संवार लो तुम भी आज
शांत, श्वेत, सहज-सरल ज्योत्सना
उतार लो अपने हृदयाकाश
फिर उतर गहरे दूर तक
कर लो तुम अप्रतिम नौका विहार
देखो बस देखो और महसूस करो
अब कैसा दिखता है यह संसार
हे न अज़ब, अनूठा भय-मुक्त
यह सारा प्रकृति का भ्रू-विलास
आओ इसको नैन अंजुरी से पीकर
ऋषि अगस्त्य से हो जायें गंभीर
साधनारत कंही किसी कोने में अन्जान
एकमात्र श्री राम चरण का ले आधार।
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