Thursday 14 July 2016

पुरुष ठूंठ है यदि प्रकृति की कोमल छाँव नहीं है


प्रकृति तू तो लगता हम सबसे रूठ गयी है
जान रहा,तू हम सबसे मुख मोड़ रही है।
कहीं पड़ रहा सूखा,अकाल तो बाढ़ कहीं आयी है
 जाड़ों में अति ठण्ड तो,गर्मी कहीं बेहाल पड़ी है।
हिम-आलय के शिखरों की हिम गलती जा रही है
ऋतुराज बसंत की तरुणाई भी ढलती जा रही है।
ओजोन परत की चमड़ी नित ही गलती जा रही है
देखो अब तो सांस भी लेने में मुश्किल आ रही है।
तेरा आक्रोश हम पर यूँ ही बेवजह नहीं है।
रखूँगा अब तेरा मान वचन खरा यही है।
कृपा बनाए रखना अपनी तुझसे मनुहार बड़ी है
पुरुष ठूंठ है यदि प्रकृति की कोमल छाँव नहीं है।  

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