Sunday, 13 March 2016

अजर,अमर-साईं


क्या यह सच है साईं 
कि तुमने विजयदशमी 
१५ अक्टूबर १९१८ को
 त्यागी थी देह अपनी
 किन्ही अदृश्य कारणों से
अपनी अबूझ लीलाओं के चलते। 
दरअसल मुझे संदेह है 
क्योंकि सुना है तुमने 
किया था कुछ ऐसा ही 
नाटक सालों साल पहले। 
जब म्हालसापति को दे निर्देश 
तुम चले गए थे महासमाधि में 
अपने प्राणों को कर के अचेत। 
लेकिन फिर आ गए थे
बस चंद  दिनों बाद में।
अपनी उसी पुरानी मस्ती 
साकार-स्वरुप में। 
लोगों के दर्दे-गम का
 नीलकंठ बन,हलाहल पीने। 
चन्दन सी शीतलता भरा 
अपना वरदहस्त रखने। 
तो कहीं अभी भी तो
 ऐसा ही कुछ तो नहीं है। 
कि तुम आने वाले हो 
शीघ्र ही किसी नए भेष में। 
अल्हड सी बांकपन भरी 
अपनी फकीराना शैली में। 
वैसे सच कहूँ तो 
मुझे जरा भी नहीं लगता 
कि तुम जा सकते हो कभी 
हमें निरूपाय,निःसहाय छोड़ के। 
क्योंकि तुम्हारी तो साईं 
आन-बान-शान ही यही है 
कि भक्त की दर्द,तकलीफ 
तुम्हें जरा भी भाति नहीं है। 
इसलिए ही तो,जब तुम 
अदृश्य से समाधी में हो 
तो भी कहीं भी,कभी भी 
दिख जाते हो अक्सर 
एक अलग रूप में। 
अपने हाथ को अग्नि में 
झुलसा कर भी,किसी तरह 
माया के ताप से क्रंदन कर रहे 
शिशु भक्त को बचाने के लिए। 
astrokavitarkeshblogspot.com
  

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