देह-गेह की षष्ठी-पूर्ती चौखट पर,होकर मैं खड़ा।
करूं चिंतन,क्या खोया और भला क्या पा सका।।
जीवन की कृपा सौगात का,दुर्लभ अवसर जो अन्ततः मिला।
अनेक योनियों में विचरता,तब कहीं मानवीय रूप ये मिला।।
हरि कृपा का यह चमत्कार,पर क्या वस्तुतः भुना सका। तर्क-कुतर्क करते-करते,मैं तो स्वयं से ही हूँ चकरा रहा।।
अपने भीतर अनुसंधान के निमित्त,जो मुझ को भेजा गया।
दुरूह परिश्रम कोल्हू के बैल जैसा,परिणाम कहाँ मैं
पा सका।।
रूप-यौवन,पद-प्रतिष्ठा,धन-दौलत रहा प्राप्ति का नशा। अखिल ब्रम्हांड के नायक को मैं कहाँ,अतः खोज सका।।
यद्यपि हूँ मैं तेरे ही भीतर,कान में उसने मुझसे था कहा।
पर हतभाग्य ये कहाँ,परिस्थिति का चक्रव्यूह तोड़ सका।।
देख पाता सहस्त्रदल- "नलिन" को,अष्टचक्र जो भेद सकता।
अभी तो इस सोपान आकर कुंठित सा हूँ निरूपाय खड़ा।।
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