रेशमी जुल्फों के साए बगैर जीना भी सीखना चाहिए।
बनके बंजारा तपते मरुस्थल हर हाल चलना सीखिए।।
जद्दोजहद हर कदम यकीं अपना तोड़ने को बेचैन रहती।
थक-हार,टूटके बैठने से होगी पर हार ये तो तय मानिए।।
वो आए नहीं करके वादा हर बार की तरह हमें मिलने। इल्जाम किस पर मगर थोपना है बस आप ये सोचिए।।
रात,दिन कटते नहीं सो हलाल अब खुद ही हो रहे हम।
कौन जाने हमको कब तलक ये हलाहल निगलना पड़े।।
जब उसकी ही रजामंदी पर चलती हों वक्त की सुईयां। बिंदास तमाशा खुद का "उस्ताद" बनते हुए देखिए।।
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