Sunday 27 April 2014

मुसकराओ तुम मुसकराओ















रो-रो के जिओगे तो 
हर सांस पर मरोगे 
कष्ट,बदहाली से सदा ही 
तुम त्रस्त रहोगे।
हँस -हँस के जिओगे तो 
नलिन सदृश कीचड़ में भी 
निर्लिप्त,निर्विकार से 
हर साँस पर खिलोगे। 
खुद ही नहीं ,ओरों को भी 
अपनी मुसकराहट से 
खुश्बू बिखेर कर जिला दोगे। 
तो सोचते क्या हो?
ठहाका लगाओ,जोर से 
या की फिर,ये नहीं 
तो भी हौले ही सही 
झूम कर मुसकराओ। 
होंठों पर जुम्बिश न हो 
तो भी भीतर से अपने 
गुनगुनाओ,गीत गाओ
आड़ी -बेड़ी ताल लगाओ। 
देखो अब तुम कितने 
हल्के फूल से होकर 
हवा में विचरते हो 
"पवनपुत्र 'की तरह 
प्राणों को अपनी 
हथेली पर रखकर 
निर्भय,अलमस्त हो कर। 
पीड़ा,संत्रास,विषाद 
इन सबसे अब 
तुम्हारा क्या वास्ता 
तुम तो  होगे  मुक्त 
और तुममें होगी 
समाहित -अक्षय,निराली 
प्रबल जीवन -ऊर्जा। 
इसलिए जैसे भी हो 
हँसो,मुसकराओ,खिलखिलाओ 
और ग़म को भूल जाओ। 
इसलिए नहीं कि 
वो तुम्हें भयभीत करता है 
अपितु इसलिए कि 
तुम्हें तुम्हारे हँसने,मुसकराने  से
प्रमाणित हो जाता है कि 
दुःख सचमुच कुछ नहीं होता 
यह मात्र हमारा 
मिथ्या भ्रम होता है। 
दरअसल जीवन तो 
आनन्दोत्सव होता है
गहरा,मीठा,अमृतदायी 
अद्भुत,हर पल नए 
अनुभव देने वाला। 
अतः आओ जीवन के 
उद्देशय को पहचानो 
उसकी सार्थकता को उबारो। 
अपनी पहचान का 
समय की शिलालेख पर 
एक नया हस्ताक्षर उकेरो
 मुसकराओ तुम मुसकराओ। 


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