Thursday 24 April 2014

मधुशाला




जीवन के पथ पर जाने कितनी 
मिलती रहती हैं जीवनशाला। 
कुछ कहती हैं योग करो तो 
बतलातीं कुछ भोगमयी काया।

इन सबसे भिन्न मगर, अद्भुत 
पाठ  पढ़ाती नया नवेला,मधुशाला। 
सर्वस्व लूटा कर अपना, बन साकी बाला 
तृप्त करो उर सबका,छलका प्याले की हाला। 

जाने कितनेअविरल  मंथन से 
प्रगट हो पाती है हाला।
जो सूचक है मात्र इसी का 
प्रिये दूर नहीं अब अमृत प्याला।

लेकिन अमृत रस से पूर्व तुम्हें तो 
पीनी होगी तप्त, तिक्त यही हाला।
जब यही नियति है तो भय तज पीले 
बम-बम कहते, बन तुम भोले,मतवाला। 

देख कहीं वो भरे हुए दस प्यालों वाला 
न खुद पीता है न देता है अपनी हाला।
लेकिन वहीँ एक बूँद भी बड़े जतन से पाने वाला
बुझते दीपक की खातिर टपका देता है अपनी हाला।

कहीं स्वयं ही तोड़ रहा कोई अपना प्याला 
तो एक है वो भी जो चाट रहा खाली प्याला।
पगले तो देख समझ ले,यह जीवन एक मधुशाला 
अलग है हाला,अलग है प्याला,अलग-अलग साकी बाला।       

No comments:

Post a Comment