Wednesday 16 April 2014

सपने तलाशता बचपन 

सपने तलाशते  बचपन की थी चाह कैसी अनोखी
परात भरे पानी में तैरा  दी कागज की एक कश्ती।

पॉलिश की डिब्बी से बना कर तराजू छोटी-छोटी
तौल दी जाने कितनी माणिक-मुक्ता की ढ़ेरी।

अभिलाषाओं का सागर पी गयी नन्ही सी अंजुली
सप्त-लोक चौदह भुवनों में सैर करे मन-पंछी।

बचपन के रिश्तों की बातें थी बड़ी ही भोली-भाली
चंदा थे मामा सूरज  थे चाचा तो मौसी चटोरी बिल्ली।

उड़न घोड़े पर  सवार हाथों में ले स्वर्ण तलवार गुरु की
जादुगर के चंगुल से छुड़ा कर आती दिल की शहजादी।


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