Monday 28 April 2014

ग़ज़ल-10




घटा ज़ुल्फ़ की जब छाने लगी।
दिले-धड़कन अपनी बढ़ाने लगी।।

सोचा था पियेंगे आज जम के मय
करीब उनके बेहोशी छाने लगीं।।

रात बीती किस तरह बतायें हम।
सुबह फिर यादे-दिल सताने लगी।।
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पिलायी तो कसम से थोड़ी ही मगर।
खुश्क लबों को वो ही भाने लगी।।

रंगते-मय किस शोखी में ढलीं थीं।
बात आसां कंहाँ समझ जो आने लगी।।

मय पी टूटीं कसम आज "उस्ताद" की।
सुर्खी में ताज़ा ख़बर बिकाने लगीं।।


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