Saturday 12 April 2014

आतंक

आँखों में पसरा मौन 
रेतीली बालू सा
- खुश्क 
रेगिस्तान बन 
कितना भयावह 
और उजाड़ सा 
बिखरा  पड़ा है 
दूर दूर तक 
कहीं कोई आहट नहीं 
मूक,स्तब्ध 
अजीब बैचेनी 
कसमसाहट सी 
- उड़ाता  
आँखों के ड्राइंग रूम में 
कैक्टस सा क्यों सजा है 
कहीं  चुपचाप 
दबे कदमो से 
अचानक आने वाले 
रात के अंधड़ से 
डरता,सहमता 
तो नहीं दुबका है 
जो हर रोज़ 
नियम-कानून के 
बांध तोड़ता हुआ 
यहाँ से वहाँ तक
- जंगल राज 
कायम करता 
शान्ति की मधुर 
- झंकार में 
ग्रहण लगाता हुआ 
- राहु सा छा जाता है
और नहीं बख्शता 
दबोच लेता है 
अंधे धृतराष्ट्र की तरह 
निर्मम बाहुपाश में 
अपने ही बेटे भीम को।  




    

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