Saturday, 23 October 2021

397 : गजल --- वक्त का सिला

वो शहर में आकर भी न मुझसे मिला। 
वक्त का देखने को मिला ऐसा सिला।।

तन्हाई ओढता-बिछाता ही अब चल रहा।
आईने से मुँह मोड़ कहाँ जीना हो सका।।

रूह तो जाने कब की फना हो गई यारब।
देखना है जिस्म बिना इसके कब तक चला।।

वो करीब होकर भी मुझसे हैं दूर क्यों।
इस बात का ता-उम्र पता न लग सका।।

"उस्ताद" खोए हैं शेखचिल्ली से ख्वाब संजोए।
यूँ उसने तो बड़ी साफगोई से इनकार कर दिया।।

नलिनतारकेश 

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