Sunday, 11 April 2021

गजल-332

सजदे में सामने बैठ उसके रोता बहुत हूँ।
परमानंद भीतर मगर तब बोता बहुत हूँ।।
रोना बुरा कतई नहीं जब दामन हो उसका।
बदमिजाजी ऐसे ही अपनी खोता बहुत हूँ।।
सतह पर मिलती कहाँ हैं चीजें कीमती। 
लगाता मैं गहरा तभी तो गोता बहुत हूँ।।
बाँचता हूँ यूँ तो सबके नक्षत्र,ग्रह,तारे मगर।
मुस्तकबिल से अंजान खुद के होता बहुत हूँ।।
जब से किया "उस्ताद" को उसके हवाले।
बेफिक्र घोड़े बेचके तबसे सोता बहुत हूँ।।

नलिन @उस्ताद 

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