Sunday, 4 April 2021

331-गजल

यहाँ मर के बमुश्किल अकेले कोई जाता है।
निकलता वो तो लेकर चाहतों का पिटारा है।।
आता है तभी तो यहाँ जमीं पर वो बार-बार।
सिलसिला ये जतन लाख ही छूट पाता है।।
हैं यहाँ जो भी बिछुड़ गए संगे-साथी। 
यादों का कारवां उनके साथ गाता है।। 
मिलते-बिछुड़ते हैं हम धूप-छांव जैसे।
जुदा यहाँ तो सबका ही बहीखाता है।।
देह मरती है,रूह तो मरती नहीं कभी भी।
नायाब एक बस यही तो अपना नाता है।।
चहकते रहो सफर में मिले-बिछुड़े चाहे कोई भी। 
"उस्ताद" जिंदगी का बस यही फसाना है।।

नलिन @उस्ताद 

No comments:

Post a Comment