Wednesday, 10 February 2021

गजल - 318 हर उड़ती पतंग

हर उड़ती पतंग चिपटा लेता है खुद में दरख्त मेरा।
जाने कब तलक बहकायेगा मुझको ये वक्त मेरा।
हवाओं में तैरते बादलों संग बतियाने को।
तोड़ना चाहे है दिल हर एक गिरफ्त मेरा।।
देखा नहीं है पर फिर भी देखता हूं हर रोज उसे।
है लगता रंग तो लाएगा एक दिन ये खब्त मेरा।।
कहने को तो यूं कभी कुछ नहीं कहता है मुझसे।
यूं रखता है अपना वो नब्ज पर हाथ सख्त मेरा।।
कोसने दो जमाने भर को सारे जितना भी जी चाहे।
दरअसल हो गया है दिल बड़ा अब ढीठ,कमबख्त मेरा।।
है रहमो-करम "उस्ताद" का जब तलक भी।
सजता रहेगा यूं ही हर रोज दीवाने-तख्त मेरा।।

नलिन  "उस्ताद "

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