Wednesday 14 January 2015

300 - कागभुशुण्डिजी प्रसंग












कागभुशुण्डिजी प्रसंग  :उत्तरकाण्ड दोहा ५१ से आगे 
रामचरितमानस में कागभुशुण्डिजी प्रसंग भी मुझे इस लिए अति प्रिय लगता है क्योंकि इसमें काग जैसा पक्षी जो वर्ण  से काला,वाणी से कर्कश और व्यवहार में दुष्टता /चालाकी  का पर्याय माना जाता है वह भी रामजी की कृपा का अधिकारी हो जाता है। दूसरा गुरु की अवज्ञा करने के बावजूद गुरु की असीम दयालुता के फलस्वरूप कृपा का पात्र बनता है। तीसरा सगुन भक्ति की विशिष्टता ,उच्चत्ता ,दिव्यता को स्थापित करता है । इस कथा प्रसंग को पढ़ना भक्ति का रस प्रवाह सहज देता है।अपने निम्न ,निंदनीय अवगुणो का ध्यान भूला जाता है और ईश्वर की अनुकम्पा पे थोड़ा या परम विश्वास (अपने स्तर के अनुसार)होने लगता है। इस प्रसंग में पार्वतीजी भी भक्ति की परमोच्च अवस्था काग द्वारा पाये जाने से हम मानवों की जिज्ञासा शांति हेतु शिव से इसका रहस्य पूछती हैं। यहाँ  हमारे मन में उहापोह इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि गरुड़ से पार्षद,जो हरी के साथ प्रायः हर समय सेवा हेतु प्रस्तुत हैं वह तक रामजी के नागपाश से बंध जाने से मोहित हैं और "खग समझईं  खग की भाषा" के न्याय अनुसार शिव उन्हें काग के पास मोह मुक्ति हेतु भेजते हैं। क्या अद्भुत लीला है।जो नजदीक है,साधना करता  रहा वह वंचित रह गया और एक जो विकारयुक्त तन-मन लिए है वो तर गया। सच है,ईश्वर कौतुक प्रिय बड़े हैं।
सो जो भी ,शिव पार्वती को कथा सुनाते हैं। उनके पूर्व जन्म,सती की कथा। कैसे अग्निकुंड में सती  जलीं और शिव क्षोभग्रस्त हो मन शांत करने के प्रयास में सुमेरु पर्वत स्थित नीलवर्णी अाभायुक्त(नील सरोरुह नीलमणि नील नीलधर श्याम ) काग जी के निवास तक जा पहुंचे जहाँ चार सुन्दर स्वर्ण शिखरों पर बड़े भारी चार वृक्ष क्रमशः बरगद,पीपल,पाकर और आम के विद्यमान थे। यहाँ निर्मल,शीतल,मधुर जलयुक्त  सरोवर और विविध पशु,पक्षी मनोहर पेड़,पौधे  फल,फूल से लदे थे अर्थात कुल मिलाकर अत्यंत रमणीय वातावरण जो स्वतः ही मन की उद्दिग्नता को बहुत हद तक शांत कर दे। तो ऐसे दिव्य-धाम में काग जी द्वारा रामकथा का वर्णन/गायन शिव को उनकी क्षोभग्रस्त अवस्था से बाहर ले आता है ऐसा शिव वर्णित करते हैं। शिव के अनुसार ऐसे दिव्य धाम में माया का अंश भर भी प्रभाव नहीं चलता अतः प्रभु के विशेष कृपाभाजन ही यहाँ  पहुँच सकते हैं।इस कथा का एक और मार्मिक प्रसंग  चार वृक्षों का है जिसके नीचे साधक अपनी साधना अपनी-अपनी मनोवृत्तियों/परिस्थितियों के अनुसार करते हैं। इनको संछिप्त में संभवतः निम्नवत भी कहा जा सकता है (अधिक बेहतर तो विज्ञ/संत जन ही कह सकते हैं ) :
इन वृक्षों को हम ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास के रूप में सरलता से समझ सकते हैं जिसका हमारी हिन्दू संस्कृति में विशेष स्थान है।
पाकर  का वृक्ष :पाकर के नीचे साधना का अर्थ ब्रह्मचर्य अवस्था की साधना से है जब जप का अर्थ स्वाध्याय होता है। जप मानसिक,वाचिक,उपांशु हो सकता है पर यह सब अपने को तैयार करने के लिए,साधना के लिए,अपने शरीर,मन को तैयार करने के लिए  होता है। जैसे बच्चा अपने पाठ करता है,लिखता है,सुनाता है …ठीक वैसे ही यह सब कुछ इसलिए कि वह रम जाए,उसमें डूब जाए/तदाकार  जाए। यह जीवन का संघर्ष काल है जब आप अपने को तपाते हैं तो पाकर का वृक्ष इसका ही सूचक है और तदनुरूप ही इसकी समिधा तप यज्ञ हेतु  प्रयुक्त होती हैं।
आम्र का वृक्ष :आम्र वृक्ष गृहस्थ आश्रम का पर्याय माना जा सकता है क्योकि यहाँ रस है पर इस अवस्था में सामाजिक क्रिया कलापों को करते हुए विधिवत साधन-भजन का अभाव देखने में आ सकता है। अतः यहाँ व्यक्ति निर्लिप्त हो कर्म करे यह उचित होगा। यानि कि वह मानसिक जप करता रहे और अपने वर्णाश्रम के कर्तव्यों का पालन भी करता रहे। इसको देखते हुए ही तुलसीदासजी यहाँ मानसिक पूजा का आग्रह करते हैं। आम्र वृक्ष की समिधा वैदिक काम्य यज्ञ हेतु प्रयुक्त होती है।
वट का वृक्ष :वट वृक्ष के नीचे वानप्रस्थ आश्रम में  हरि कथा प्रसंगों का श्रवण इसलिए उपयोगी है क्योंकि इसकी जड दूर -दूर तक फैली होने से आप भी अपना विस्तार गहराई में जा कर कर सकते हैं। शाखाएं भी दूर तक जाती हैं और साधन भजन की वृक्ष अनुरूप आयु  भी बहुत लम्बी होती है। (भगवत कथाएं भी तो इसी अनुरूप होती हैं ,जिनका थाह पाना मुश्किल होता है)वर्तमान में आप वानप्रस्थ को रिटायरमेंट /सेवानिवृति का कालखण्ड मान सकते हैं। श्रद्धा विश्वास रुपी शिव - पार्वती के साथ में आप मन के गहरे जा कर अगले आश्रम के लिए परिपक्व हो सकते हैं। इसकी समिधा के आलोक में ज्ञान यज्ञ होना सहज स्वाभाविक है।
पीपल का वृक्ष :यह वृक्ष संन्यास आश्रम का सूचक है इस कारण से तुलसीदासजी इसके नीचे ध्यान की प्रक्रिया  निभाने को कहते हैं। पीपल का वृक्ष सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व करता है तभी तो गीता में श्रीकृष्ण उसे अपना पर्याय मानते हैं। वैसे भी सन्यासी विश्व का,सृष्टि  का होता है कूप मंडूक नहीं। इस विश्वव्यापी पीपल की छाया/आश्रय में ध्यान की प्रक्रिया करने को  कहा गया क्योंकि वह परमात्मा  के अविनाशी स्वरुप  का प्रतीक है। पीपल "ब्रह्मा,विष्णु,महेश " के  समग्र रूप में भी मान्य है अतः वह सत,रज,तम का,त्रिलोक का सूचक है। "ब्रह्म" भाव का करक होने से उसको (ईश्वर)व्यापक रूप से जानना ध्यान ही संभव है। व्यापक होने से वह नेत्र का विषय नहीं है अतः नेत्र बंद कर ध्यानस्थ हो (निर्गुण ब्रह्म)उसे जानने का प्रयत्न किया जा सकता है। पीपल सन्यासी(संसार से विलग) अवस्था का सूचक होने से इन लोगों  हेतु उपयोगी है। इसकी समिधा शुचिता यज्ञ में प्रयुक्त होती है अर्थात निष्काम कर्म हेतु।
तो इस प्रकार हम देखते हैं कि काम्य से निष्काम्य तक की यात्रा का हमारा जीवन प्रवाह चार वर्णाश्रमों के घाटों से होता हुआ अंततः श्रीराम चरण-शरणागति को प्राप्त होता है।
                                                            ओम तत सत ओम 
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