Tuesday, 27 January 2015

304 - "लक्ष्मण -रेखा" (Tribute To R.K. Laxman ji)













बिंदु से प्रारम्भ,सृजन का सिंधु
लहरों की तरह,उत्ताल रेखाओं से
रचता शब्दों का ऐसा समूह
जो माचिस की डिबिया में 
कई गज लम्बी साडी को 
समेट लेता,बड़े ही प्यार से
तो कभी तल्ख़ तंज से
द्रौपदी के पल्लू की तरह
अपने अनंत विस्तार से
हतप्रभ कर,सोचने पर
विवश कर देता, दुःशासन को
और R (am)  K अनुज अनुरूप
जन- सामान्य के हितार्थ
खीचने की सामर्थ्य रखता
चमकती,श्वेत,फौलाद सी
बारीक "लक्ष्मण -रेखा"

303 - ऋतुराज वसंत का स्वागत





लीजिये प्रकृति फिर से एक बार अपने रूप-श्रृंगार को और भी अधिक नख-शिख सवारने की प्रक्रिया में जुट गयी हैं। मौका भी है और दस्तूर भी,प्रकृति के प्रिय ऋतुराज-वसंत का आगमन जो हो रहा है। वायु में मादकता,उल्लास,उत्साह की सरगम बहनी शुरू हो गयी है। पूरा वातावरण  खुशनुमा है। सौंधी-सौंधी महक है,हरी-भरी घास का कालीन बिछ गया है। कोयल कूक रही है। आम के वृक्षों में बौर आने लगे हैं और कलियां  इठलाते हुए फूलों का आकार लेने लगी हैं। भौरे गुंजार करते इंद्रधनुषी तितलियों के साथ विचर रहे हैं। एक अलग समां है अलग नशा है और इसी का नाम है-वसंत। सबका प्रिय,मनभावन नवल वसंत।

वसंत का रंग पीला है। दरअसल खेतों में खिली सरसों ने पीली परिधान की चुनरी से अपने  को सजा कर अपने नयनाभिराम आकर्षक रूप से हम सबको अपने रंग में रंग लिया है। ज्योतिष की दृष्टि से देखें तो पीले रंग का प्रतिनिधित्व बृहस्पति करते हैं और वो ज्ञान के द्योतक ग्रह हैं ,देवताओं के गुरु हैं। यही कारण है की बृहस्पति की प्रधानता वाले जातक ज्ञानवान पंडित माने जाते हैं। वहीँ वसंत-पंचमी का दिन माँ सरस्वती का जन्मदिन भी माना जाता है। ब्रह्मा ने अपने मानस-संकल्प से उन्हें इस दिन अवतरित जो किया था। अतः इस दिन माँ सरस्वती का विधि-विधान से पूजन-अर्चन किया जाता है। देवी सरस्वती जो अपने एक हाथ में माला,एक में वीणा,एक में पुस्तक व एक हाथ में कमल लिए हैं हंस पर विराजमान दर्शायी जाती हैं। माला-सात्विक कर्म, वीणा-स्वर,संगीत, पुस्तक- ज्ञान-विज्ञान और कमल निर्लिप्तता व निर्मलता के प्रतीक हैं तो वहीँ हंस नीर-छीर विवेक का प्रतीक है। साहित्य,संगीत,कला की देवी के रूप में आप प्रातः स्मरणीय /वंदनीय हैं। नौनिहालों को इसी कारण  से इस दिन अक्षर ज्ञान का श्री गणेश  कराया जाता है। शिष्य अपने गुरु के साथ वीणापाणी का आशीर्वाद लेते हैं। पीले मोदकों,पुओं,केसर डली खीर  और हलुवे का भोग लगाया जाता है और पश्चात उसे प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है।वाणी को रससिक्त करने के लिए गायक,कला को निखारने हेतु वादक माँ सरस्वती का गुणगान करते हैं तो कवि,साहित्यकार उनकी वंदना लिखकर अपना सम्मान व कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।
सामन्यतः वसंत पंचमी का दिन "अबूझ"माना जाता है यानी यह दिन ऐसा पवित्र है की इसके लिए किसी मुहूर्त की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है। लोग इस दिन यज्ञोपवीत,गृह-प्रवेश,विवाह आदि सभी शुभ कर्म बेखटके करते हैं। समय के साथ निरंतर सुरसा सी बढ़ती महंगाई को देखते हुए एक अच्छा बदलाव यह भी आया है कि लोग सामूहिक विवाह,यज्ञोपवीत करने लगे हैं और इस हेतु वसंत-पंचमी का दिन सहज ही चुन लिया जाता है।
भारतीय पंचांग/कैलेंडर के अनुसार माघ माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को यह त्यौहार मनाया जाता है।
इसे श्री पंचमी भी कहते हैं। जैसे लक्ष्मी पूजन दीपावली में,दुर्गा पूजन दशहरे में उसी तरह पूरे उत्साह से वसंत-पंचमी को माँ सरस्वती का पूजन होता है। सरस्वती हमारी एक प्राचीन नदी का नाम भी है जिसे इलाहबाद के संगम पर गंगा,यमुना के साथ किलोल करते हुए सतत प्रवाहमान माना जाता है।अतः  संगम पर इस दिन स्नान का भी गहरा महत्व है। यूँ भी हमारी संस्कृति "कण-कण में भगवान"  के दर्शन को स्वीकार करती -नदी,पर्वतों,वृक्षों आदि में देवत्व का दर्शन करती है। वैसे रोचक तथ्य यह भी है की हमारे वांग्मय में जो त्रिवेणी अर्थात गंगा,यमुना,सरस्वती की जो चर्चा होती है उसमें गंगा-भक्ति की,यमुना कर्म की और सरस्वती ज्ञान की धारा को इंगित करती है।वैसे भी ज्ञान तो  सदा प्रवहमान रहता  है तभी तो उसकी सुचिता,दिव्यता और शुध्दता बनी रहती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह  मौसम ठण्ड और सर्दी के चलते भारी-भरकम स्वेटर,जैकेट,दस्ताने,मफलर के भार से हमें मुक्ति ही नहीं दिलाता है अपितु खुली हवा में बेरोकटोक मौजमस्ती करने का भी अवसर सुलभ करा देता है। मौसम सुहाना तो होता ही है,गर्मी का दबाव भी हम पर नहीं रहता है। शीतल मंद,सुगन्धित बयार बहती  है। तराना गाने को सभी का मन झूम उठता है। तो फिर देर क्या है?आइये हम भी गुनगुनाएं ,बसंती हो चले इस मौसम का आनंद उठाएं और ऋतुराज वसंत का पूरे दिल से स्वागत करें।



          

Wednesday, 14 January 2015

300 - कागभुशुण्डिजी प्रसंग












कागभुशुण्डिजी प्रसंग  :उत्तरकाण्ड दोहा ५१ से आगे 
रामचरितमानस में कागभुशुण्डिजी प्रसंग भी मुझे इस लिए अति प्रिय लगता है क्योंकि इसमें काग जैसा पक्षी जो वर्ण  से काला,वाणी से कर्कश और व्यवहार में दुष्टता /चालाकी  का पर्याय माना जाता है वह भी रामजी की कृपा का अधिकारी हो जाता है। दूसरा गुरु की अवज्ञा करने के बावजूद गुरु की असीम दयालुता के फलस्वरूप कृपा का पात्र बनता है। तीसरा सगुन भक्ति की विशिष्टता ,उच्चत्ता ,दिव्यता को स्थापित करता है । इस कथा प्रसंग को पढ़ना भक्ति का रस प्रवाह सहज देता है।अपने निम्न ,निंदनीय अवगुणो का ध्यान भूला जाता है और ईश्वर की अनुकम्पा पे थोड़ा या परम विश्वास (अपने स्तर के अनुसार)होने लगता है। इस प्रसंग में पार्वतीजी भी भक्ति की परमोच्च अवस्था काग द्वारा पाये जाने से हम मानवों की जिज्ञासा शांति हेतु शिव से इसका रहस्य पूछती हैं। यहाँ  हमारे मन में उहापोह इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि गरुड़ से पार्षद,जो हरी के साथ प्रायः हर समय सेवा हेतु प्रस्तुत हैं वह तक रामजी के नागपाश से बंध जाने से मोहित हैं और "खग समझईं  खग की भाषा" के न्याय अनुसार शिव उन्हें काग के पास मोह मुक्ति हेतु भेजते हैं। क्या अद्भुत लीला है।जो नजदीक है,साधना करता  रहा वह वंचित रह गया और एक जो विकारयुक्त तन-मन लिए है वो तर गया। सच है,ईश्वर कौतुक प्रिय बड़े हैं।
सो जो भी ,शिव पार्वती को कथा सुनाते हैं। उनके पूर्व जन्म,सती की कथा। कैसे अग्निकुंड में सती  जलीं और शिव क्षोभग्रस्त हो मन शांत करने के प्रयास में सुमेरु पर्वत स्थित नीलवर्णी अाभायुक्त(नील सरोरुह नीलमणि नील नीलधर श्याम ) काग जी के निवास तक जा पहुंचे जहाँ चार सुन्दर स्वर्ण शिखरों पर बड़े भारी चार वृक्ष क्रमशः बरगद,पीपल,पाकर और आम के विद्यमान थे। यहाँ निर्मल,शीतल,मधुर जलयुक्त  सरोवर और विविध पशु,पक्षी मनोहर पेड़,पौधे  फल,फूल से लदे थे अर्थात कुल मिलाकर अत्यंत रमणीय वातावरण जो स्वतः ही मन की उद्दिग्नता को बहुत हद तक शांत कर दे। तो ऐसे दिव्य-धाम में काग जी द्वारा रामकथा का वर्णन/गायन शिव को उनकी क्षोभग्रस्त अवस्था से बाहर ले आता है ऐसा शिव वर्णित करते हैं। शिव के अनुसार ऐसे दिव्य धाम में माया का अंश भर भी प्रभाव नहीं चलता अतः प्रभु के विशेष कृपाभाजन ही यहाँ  पहुँच सकते हैं।इस कथा का एक और मार्मिक प्रसंग  चार वृक्षों का है जिसके नीचे साधक अपनी साधना अपनी-अपनी मनोवृत्तियों/परिस्थितियों के अनुसार करते हैं। इनको संछिप्त में संभवतः निम्नवत भी कहा जा सकता है (अधिक बेहतर तो विज्ञ/संत जन ही कह सकते हैं ) :
इन वृक्षों को हम ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास के रूप में सरलता से समझ सकते हैं जिसका हमारी हिन्दू संस्कृति में विशेष स्थान है।
पाकर  का वृक्ष :पाकर के नीचे साधना का अर्थ ब्रह्मचर्य अवस्था की साधना से है जब जप का अर्थ स्वाध्याय होता है। जप मानसिक,वाचिक,उपांशु हो सकता है पर यह सब अपने को तैयार करने के लिए,साधना के लिए,अपने शरीर,मन को तैयार करने के लिए  होता है। जैसे बच्चा अपने पाठ करता है,लिखता है,सुनाता है …ठीक वैसे ही यह सब कुछ इसलिए कि वह रम जाए,उसमें डूब जाए/तदाकार  जाए। यह जीवन का संघर्ष काल है जब आप अपने को तपाते हैं तो पाकर का वृक्ष इसका ही सूचक है और तदनुरूप ही इसकी समिधा तप यज्ञ हेतु  प्रयुक्त होती हैं।
आम्र का वृक्ष :आम्र वृक्ष गृहस्थ आश्रम का पर्याय माना जा सकता है क्योकि यहाँ रस है पर इस अवस्था में सामाजिक क्रिया कलापों को करते हुए विधिवत साधन-भजन का अभाव देखने में आ सकता है। अतः यहाँ व्यक्ति निर्लिप्त हो कर्म करे यह उचित होगा। यानि कि वह मानसिक जप करता रहे और अपने वर्णाश्रम के कर्तव्यों का पालन भी करता रहे। इसको देखते हुए ही तुलसीदासजी यहाँ मानसिक पूजा का आग्रह करते हैं। आम्र वृक्ष की समिधा वैदिक काम्य यज्ञ हेतु प्रयुक्त होती है।
वट का वृक्ष :वट वृक्ष के नीचे वानप्रस्थ आश्रम में  हरि कथा प्रसंगों का श्रवण इसलिए उपयोगी है क्योंकि इसकी जड दूर -दूर तक फैली होने से आप भी अपना विस्तार गहराई में जा कर कर सकते हैं। शाखाएं भी दूर तक जाती हैं और साधन भजन की वृक्ष अनुरूप आयु  भी बहुत लम्बी होती है। (भगवत कथाएं भी तो इसी अनुरूप होती हैं ,जिनका थाह पाना मुश्किल होता है)वर्तमान में आप वानप्रस्थ को रिटायरमेंट /सेवानिवृति का कालखण्ड मान सकते हैं। श्रद्धा विश्वास रुपी शिव - पार्वती के साथ में आप मन के गहरे जा कर अगले आश्रम के लिए परिपक्व हो सकते हैं। इसकी समिधा के आलोक में ज्ञान यज्ञ होना सहज स्वाभाविक है।
पीपल का वृक्ष :यह वृक्ष संन्यास आश्रम का सूचक है इस कारण से तुलसीदासजी इसके नीचे ध्यान की प्रक्रिया  निभाने को कहते हैं। पीपल का वृक्ष सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतिनिधित्व करता है तभी तो गीता में श्रीकृष्ण उसे अपना पर्याय मानते हैं। वैसे भी सन्यासी विश्व का,सृष्टि  का होता है कूप मंडूक नहीं। इस विश्वव्यापी पीपल की छाया/आश्रय में ध्यान की प्रक्रिया करने को  कहा गया क्योंकि वह परमात्मा  के अविनाशी स्वरुप  का प्रतीक है। पीपल "ब्रह्मा,विष्णु,महेश " के  समग्र रूप में भी मान्य है अतः वह सत,रज,तम का,त्रिलोक का सूचक है। "ब्रह्म" भाव का करक होने से उसको (ईश्वर)व्यापक रूप से जानना ध्यान ही संभव है। व्यापक होने से वह नेत्र का विषय नहीं है अतः नेत्र बंद कर ध्यानस्थ हो (निर्गुण ब्रह्म)उसे जानने का प्रयत्न किया जा सकता है। पीपल सन्यासी(संसार से विलग) अवस्था का सूचक होने से इन लोगों  हेतु उपयोगी है। इसकी समिधा शुचिता यज्ञ में प्रयुक्त होती है अर्थात निष्काम कर्म हेतु।
तो इस प्रकार हम देखते हैं कि काम्य से निष्काम्य तक की यात्रा का हमारा जीवन प्रवाह चार वर्णाश्रमों के घाटों से होता हुआ अंततः श्रीराम चरण-शरणागति को प्राप्त होता है।
                                                            ओम तत सत ओम 
Note : Thanks  to my Blog Reader friends for love and support for my books - MANAS SUDHA MANJARI @50 & SAI KRIPA YACHANA @60.Now these books are also available in BOOK SADAN ,Opp. KENDRIYa VIDHYALAYA Patrkarpuram ,GOMTI NAGAR,LUCKNOW .As previously stated these books are available in 1.UNIVERSAL BOOK CENTER , KAPOORTHALA ALIGANJ 2.SAI MANDIR of Kamla Nehru Nagar (Khurramnagar),near Vikasnagar &also at 3.Subhash Pustak Bhandar, Guru Nanak Market near Charbagh Railway Station.

Tuesday, 13 January 2015

299 - पंच महापुरुष योग



ज्योतिष शास्त्र में ऐसे अनेक योगों का उल्लेख है जो व्यक्ति की कुंडली में यदि उपस्थित हों तो उसे सम्पन्नता,प्रतिष्ठा,उच्च-पद आदि देते हैं, किंतु एक तो ऐसे योगों की संख्या बहुत अधिक है दूसरे उनको कुंडली में ढूंढ़ पाना बिना किसी विज्ञ ज्योतिष की सहायता के टेढ़ी खीर है। अतः यहाँ पर हम एक ऐसे योग की चर्चा करना उचित समझते हैं जिसको पाठकगण अपनी कुंडली में सरलता से पहचान सकते हैं। इस योग को ‘पंचमहापुरुष योग’ के नाम से जाना जाता है। इस योग की उपस्थिति  जातक को उसके लक्ष्य को प्राप्त करने में अत्यंत सहायता देती है। वह धनी-मानी,समाज में प्रतिष्ठित,संस्कारवान,महापुरूष के समान ही होता है,उसकी यशकीर्ति दूर तक फैली होती है।
कुडंली के चार केंद्र:निम्न कुंडली में गुलाबी रंग के खाने केंद्र स्थानों के सूचक हैं।अर्थात यहाँ पर लिखित 4,7,10,1 अंक लिखे खाने केंद्र स्थान हैं।अन्य कुंडली में इन स्थानों पर अंक दूसरे हो सकते हैं।  
इस योग में ‘पंच’ शब्द का उपयोग इसलिए हुआ है क्योंकि पांच ग्रहों शुक्र, बुध, मंगल,बृहस्पति व शनि में से किसी एक ग्रह या एकाधिक ग्रहों के एक विशिष्ट स्थिति में उपस्थिति से यह योग उत्पन्न हो सकता है।जैसे उपरोक्त चक्र/कुंडली में बृहस्पति लग्न में,शनि चतुर्थ में व मंगल सप्तम स्थान में उच्च हो कर स्थित हैं। जहाँ 4 का का अंक है वह लग्न स्थान कहलाता है।जन्म कुंडली में बारह भाव (खाने) होते हैं, जिनमें से चार भाव (खाने) ‘केंद्र स्थान’ कहे जाते हैं।इसे निम्न द्वारा सहजता से समझा जा सकता है:
प्रथम भाव (जो एक केंद्र स्थान है) को ‘लग्न स्थान’ भी कहते हैं। यहां जो भी राशि या अंक पड़ा होता है वह उस जातक का ‘जन्म लग्न’ होता है। जैसे 1 का अंक तो मेष लग्न, 2 का अंक तो वृष लग्न आदि आदि। यदि उपरोक्त वर्णित पांच ग्रह केंद्र स्थान में एक साथ या अलग-अलग अपनी राशियों या उच्च राशियों में स्थित हों तो वह पंचमहापुरूष योग का निर्माण करते हैं,यह पांच ग्रह किन-किन राशियों में पंचमहापुरुष  योग की स्थिति उत्पन्न करते हैं, यह निम्न प्रकार स्पष्ट है:
क्र. सं.         योग        ग्रह           राशि                         राशि अंक
1.              रूचक     मंगल       मेष        स्वराशि                 (1)
                                            वृश्चिक     स्वराशि                 (8)
                                             मकर     उच्चराशि               (10)
2.               मालव्य     शुक्र       तुला      स्वराशि                     (7 )
                                               वृष     स्वराशि                       (2)
                                               मीन     उच्चराशि                 (12)
3.               शश           शनि         मकर  स्वराशि                   (10)
                                                 कुम्भ  स्वराशि                 (11 )
                                                 तुला    उच्चराशि                 (7)
4 .               भद्र            बुध         मिथुन स्वराशि                    (3)
                                                  कन्या  स्वराशि                  (6)
                                                  कन्या  उच्चराशि               (6)
नोट :बुध की उच्च व स्वराशि एक ही है। 
5 .                  हंस        बृहस्पति     धनु     स्वराशि                  (9)
                                                  मीन    स्वराशि                 (12)
                                                  कर्क    उच्चराशि               (4)
नोट:उच्च ग्रहों का परस्पर एक दूसरे को देखना उच्च भंग कर देता है अतः इस स्थिति में उच्च ग्रहों के फल नष्ट हो जाते हैं। जैसे उपरोक्त चक्र में बृहस्पति और मंगल तथा सूर्य और शनि में यह योग बन रहा है। 
अब हम इन पांच ग्रहों से बनने वाले योगों के संक्षिप्त फल वर्णित करते  हैं :------------
रूचक योग :मंगल यदि लग्न से केंद्र में बैठा है और अपने घर में अर्थात स्वग्रही हो या उच्च स्थान पर हो तो "रूचक योग"होता है। ऐसा जातक अत्यंत साहसी,शूरवीर,शत्रुओं पर विजय पाने वाला,कीर्तिवान,शीलवान व धनवान होता है।वह मिलेट्री,पुलिस,शक्ति प्रदर्शन व अन्य खेलों,प्रशासन जैसे विभागोँ में या चिकित्सा,कंप्यूटर इंजीनियरिंग जैसे विभागों में महत्वपूर्ण पद प्राप्त कर सकता है।  
भद्रक योग : बुध यदि लग्न से केंद्र में बैठा है और अपने घर में अर्थात स्वग्रही हो या उच्च स्थान पर हो तो "भद्रक योग"होता है।ऐसा जातक अत्यंत मधुर भाषी,विद्वान,बुद्धिमान,सत्कारी,धर्मात्मा,परोपकारी,स्वतंत्र विचारों वाला होता है। वह दक्ष व्यापारी,उद्योगपति,शिल्पकला का मर्मज्ञ,नृत्य का जानकार,लेखाकार,हास्य/व्यंगकार,ज्योतिष,दिमागी खेलों,कॉमर्स,शेयर मार्किट -जैसे छेत्रों में व वाक शक्ति द्वारा भी आजीविका चल सकने में समर्थ होता है तथा जग-प्रसिद्द हो सकता है। 
हंस योग :बृहस्पति यदि लग्न से केंद्र में बैठा है और अपने घर में अर्थात स्वग्रही हो या उच्च स्थानपर हो तो "हंस योग"होता है।ऐसा जातक विद्या में निपुण,विविध शास्त्रों का ज्ञाता,साधु प्रकृति,आचारवान,अपने व्यवहार,अपनी छवि से सभी के ह्रदय में विराजमान होने वाला,आदरणीय होता है। वह शिक्षा के छेत्र में उच्च पद पर शोभायमान होता है। राज्य सरकार/केंद्र सरकार के महत्वपूर्ण पदों,राजदूत,संत,धार्मिक नेता या जननायक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। ईश्वरीय  प्रेरणा/कृपा उस पर सदेव रहती है ,सात्विक तेज भी मुख पर दीखता है। 
मालव्य योग : शुक्र यदि लग्न से केंद्र में बैठा है और अपने घर में अर्थात स्वग्रही हो या उच्च स्थान पर हो तो "मालव्य योग"होता है।ऐसा सुन्दर,सुडौल गुणवान,शास्त्र ज्ञाता,तेजस्वी,मोहिनी छविवाला,धनी,विविध भोग सामग्रियों से भरा-पूरा होता है। वह ब्यूटी पार्लर,मॉडलिंग,विज्ञापन,संगीत,कला के छेत्रो में देश-विदेश में सम्मानित होता है। फ़िल्म स्टारों या मीडिया में बने रहने वालों के चक्र में यह योग सहज पाया जा सकता है। 
शश योग :शनि यदि लग्न से केंद्र में बैठा है और अपने घर में अर्थात स्वग्रही हो या उच्च स्थान पर हो तो "शश योग"होता है।यह लोग तेज प्रति के,अपना काम निकलने में निपुण,राजा,सचिव,मंत्री,निम्न वर्ग के नेता,सामजिक कार्यों से जमीनी स्तर पर जुड़े ,इंडस्ट्रलिस्ट,तानाशाह,धातुकर्म में सिद्धहस्त,नामी वकील,सूक्ष्म/पैनी बुद्धि वाले,अड़ियल,कठोर श्रम करने वाले,और अपने सिद्धांतों से पीछे न हटने वाले होते हैं। 
यदि यह योग एक से अधिक ग्रहों द्वारा निर्मित हो तो यह जातक की शक्तियों को बढ़ाता है। उसी क्रम में धन,वैभव देता है। पुनः चन्द्र कुंडली में भी इसकी पुनरावृत्ति इसके फल को स्वाभिक ही दुगना कर देगी। वह निम्न स्थितियों,कुल,आदि से ऊपर उठकर जगत में विशेष प्रसिद्धि पाता है इसमें संशय नहीं।
नोट:पंच महापुरुष योग का निर्माण करने वाले ग्रह पर यदि पाप ग्रहों की दृष्टि आदि प्रभाव होंगे तो फल में कमी के साथ ही उसके चरित्र में निम्नता भी आयेगी।   
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Monday, 12 January 2015

298-SWAMI VIVEKANANDA -CALL TO THE NATION



Once more,awake!
For sleep it was,not death,to bring thee life
Anew and rest to lotus-eyes for visions
Daring yet.The word in need awaits,O Truth!
No Death for thee!
Resume thy march,
With gentle feet that would not break the 
Peaceful rest even to the roadsidedust
That lies so slow.Yet strong and steady,
Blissful,bold and free. A wakener,ever
Forward!Speak thy stirring words.

My heart is filled with joy and bliss whenever I share the memory of Paramhansa Ramkrishna ji,the Divine Guru of Narendra or say Vivekananda who in a very short span of life,39 years left no stone unturned to empower the holy motherland-The incredible India,in its own unique style. Ramkrishna ji enlightened and provoked him for the great work of nation building which was based on spiritual brotherhood.He was an architect of nation as per the Sanatana Dharma basic principles.Vivekananda's patriotic approach besides his ascetic principles of complete harmony and basic oneness for the whole universe is remarkable.This call of his to the Nation assumes more and more importance in modern times because of the dynamics of globalization and "free market"economy forced upon or undertaken by one country.When science and Technology,inventions and advancements in knowledge fail to answer questions pertaining to declining moral and ethical values,widening gap between the rich and the poor,failing economics and feeling of insecurity all around one turns to some thing else.Thanks God!It'sour privilege that we have Swami ji to awake us and show us the path which will surely lead  us to become once again Vishwa Guru. It calls for conscious effort to acquire such broadness of vision and heart which Swami ji asked for.

The important point to note is Swami Vivekananda's insistence on individual liberation as a priority over the efforts to do good to the world.Achieving such exalted state of altered consciousness forms the basis for human actions.Every human act have this aim in sight.Thus religion or spirituality in the eyes of Swami ji was an act of inching higher & higher on the steps of consciousness,from animal to human and from human to Divine consciousness.
According to him,the major contribution of India,in the world today,would be in the sphere of spirituality.He said more than one hundred years back,"Here in this blessed land,the foundation,the backbone,the life center is religion and religion alone".The following words of Swami ji make us feel at ease and confidence.According to him (a)Try to be pure and unselfish-that is the whole of religion.(b)Each soul is potentially Divine.(c) The goal of human birth is to realize this divinity within and manifest it outside for the welfare of the humanity.
Swami ji saw the modern society as almost borne down,half killed and degraded by the political ambitions and social scheming.The remedy he suggested was renunciation and service.These twin ideals form the central theme of his message to bring back the hidden spirituality of a soul to the surface."In the effort if death comes welcome it",he said because he feels strongly that "the weak have no place here,in this life or any other life.Weakness leads to slavery,weekness leads to all kinds of misery,physical and mental.Weakness is death."
For Swami Vivekananda ji India was Synonymous with the spirit of religion."If India is to die,"he has said,"Religion might be wiped off from the face of the earth,and with it the Truth".He did not want to see India as a replica of a western country.This dream of future India was that of material prosperity along with spiritual revival,with which she would extend the hand of peace and blessedness to all people of the world.
And at last,summing up,I would like to share one of his poems,"Hold on yet a while,Brave heart",the victory is sure to come.

HOLD ON YET A WHILE, BRAVE HEART
(Written to H. H. The Maharaja of Khetri, Rajputana.)
If the sun by the cloud is hidden a bit,
If the welkin shows but gloom,
Still hold on yet a while, brave heart,
       The victory is sure to come.
No winter was but summer came behind,
Each hollow crests the wave,
They push each other in light and shade;
       Be steady then and brave.
The duties of life are sore indeed,
And its pleasures fleeting, vain,
The goal so shadowy seems and dim,
Yet plod on through the dark, brave heart,
      With all thy might and main.
Not a work will be lost, no struggle vain,
Though hopes be blighted, powers gone;
Of thy loins shall come the heirs to all,
Then hold on yet a while, brave soul,
      No good is e'er undone.
Though the good and the wise in life are few,
Yet theirs are the reins to lead,
The masses know but late the worth;
     Heed none and gently guide.
With thee are those who see afar,
With thee is the Lord of might,
All blessings pour on thee, great soul,
     To thee may all come right!
                                               OM-TAT-SAT-OM