काहे को तुम इतना सोचते खामखां।
दो दिन की इस जिंदगी में खामखां।।
अब तक देखा तो है तुमने हर बार ही।
ख्वाब बुने मगर सच कितने खामखां।।
मेहनत मशक्कत करना ठीक है चलो।
खुद को क्यों हो रहते गलाते ख़ामखां।।
हंस के बोलो,बतियाओ और गाओ जरा।
सन्नाटे में बैठ भला क्या करोगे ख़ामखां।।
कुदरत में हैं नज़ारे गजब के बिखरे हुए।
भरे हो तुम क्यों "उस्ताद" आंखें ख़ामखां।।
नलिन "उस्ताद"
No comments:
Post a Comment