सोचता हूं बादलों की तरह उड़ना सीख जाऊं।
मगर है तभी संभव जब थोड़ा हल्का हो पाऊं।।
जमीन रहे कदमों में मेरे और बाहों में आकाश हो।
मुश्किल कुछ नहीं जो शिद्दत से खुद को संवारूं।।
जो रूठने को ही प्यार का इजहार है समझता।
रूठे दिलदार को ऐसे बता भला कैसे मनाऊं।।
मोहब्बत तो असल वो है जिसमें दो जान एक हैं।
फिर रहें पास या दूर ये बात कैसे उसे समझाऊं।।
उमड़-घुमड़ रहे बादल बरखा भी तेज हो रही खूब।
सोचता हूं एक चक्कर बगैर छतरी भीगकर आऊं।।
चाहता तो हूं अपनी तस्वीर को आईने में निहारना।
बात तब है "उस्ताद" किरदार जो खुद का निखारूं।।
नलिन "उस्ताद"
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