शेर आज एक भी नहीं लिख पाऊंगा लगता है।
ये बरसात का बादल जो मुझे लेकर बरसता है।।
बिजली कड़क रही थी रात कितनी तौबा-तौबा।
उससे दूर होकर यह दिल अभी भी धड़कता है।।
घुटनों-घुटनों पानी में भी चलकर जिसके दर पहुंचा।
रस्मे-उल्फ़त को अब वही सरेआम रुसवा करता है।।
चिराग को बुझाने आँधियों ने मिलकर साजिश रची।
मेहरबान पर जिस पर हो खुदा वो कहाँ बुझता है।।
झुर्रियाँ चेहरे पर बढ़ती जा रहीं हैं सीप के मानिंद।
देखना है क्या अब "उस्ताद" भी मोती उगलता है।।
No comments:
Post a Comment