Friday, 31 May 2024

ग़ज़ल: ६१९ बेसाख्ता

आंखों में जरा आप पानी तो बूंद भर रख लीजिए।
 समझ के झील कोई तैरे भी तो कैसे जरा सोचिए।।

मैंने जो लगाया था घोंसला गौरैय्या पालने के लिए।
रहने को आईं वो मगर बड़ा ठोक बजाकर देखिए।।

बहुत सोचता हूं उसके लिए जान न्योछावर कर दूं।
मगर वो बनती ही नहीं मेरी जान क्या करूं कहिए।।

प्यार मेरा एक राज था तो भला उसे कैसे बयान करता।
निगाह पढ़ने का था बहुत उसे तजुर्बा तो क्या कीजिये।।

बेसाख्ता  खुद को ही दाद दे देता हूं अब तो मैं अक्सर।
"उस्ताद" जब और कोई न पूछे तो भला क्या कीजिए।।

नलिन "उस्ताद" 

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